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भी जाना जाता है कि समान धनवाले सब जीवप्रदेशों की वर्गणा होती है । वह सूत्र इस प्रकार है-केवलिस मुद्घात में केवली चौथे समय में लोक को पूर्ण करते हैं। लोक के पूर्ण होने पर योग की एक वर्गणा होती है ।' अभिप्राय यह है कि लोक के पूर्ण होने पर लोकप्रमाण जीवप्रदेशों का समयोग होता है।
(१०) वेदनाभावविधान की दूसरी चूलिका में प्रसंगप्राप्त एक शंका का समाधान करते हए धवला में कहा गया है कि लोकपूरणसमुद्घात में वर्तमान केवली का क्षेत्र उत्कृष्ट होता है, भाव भी जो सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक के द्वारा प्राप्त हुआ, वह लोक को पूर्ण करनेवाले केवली के उत्कृष्ट अथवा अनुत्कृष्ट होता है, ऐसा न कहकर उत्कृष्ट ही होता है, यह जो कहा गया है, उसका अभिप्राय यही है कि योग की हानि-वृद्धि अनुभाग की हानि-वृद्धि का कारण नहीं हैं। अथवा कसायपाहुड में जो यह कहा गया है कि दर्शनमोह के क्षपक को छोड़कर सर्वत्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व का अनुभाग उत्कृष्ट होता है उससे भी जाना जाता है कि योग की हानिवृद्धि अनुभाग की हानि-वृद्धि का कारण नहीं है । धवला में निर्दिष्ट वह प्रसंग कसायपाहुड में भी उसी रूप में उपलब्ध होता है।
(११) इसी भाव विधान-चूलिका में आगे काण्डकप्ररूपणा में प्रसंगप्राप्त सूत्र २०२ की व्याख्या करते हुए उस प्रसंग में धवला में यह कहा गया है कि यह सूक्ष्म निगोदजीव का जघन्य अनभागसत्त्वस्थान बन्धस्थान के समान है। इस पर शंका उत्पन्न हुई है कि यह कहाँ से जाना जाता है।
इसका समाधान करते हुए धवला में कहा गया है कि इसके ऊपर एक प्रक्षेप कि करके बन्ध के होने पर अनुभाग की जघन्य वृद्धि होती है और उसी का अन्तर्मुहूर्त में काण्डकघात के द्वारा घात करने पर जघन्य हानि होती है, यह जो कसायपाहुड में प्ररूपणा की गयी है, उससे वह जाना जाता है।
(१२) इसी भावविधान-चूलिका में आगे प्रसंगवश सत्कर्मस्थाननिबन्धन और बन्धस्थाननिबन्धन इन दो प्रकार के घातपरिणामों का उल्लेख करते हुए धवला में यह कहा गया है कि उनमें जो सत्कर्मस्थाननिबन्धन परिणाम हैं, उनसे अष्टांक और ऊवंक के मध्य में सत्कर्मस्थान ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि वहाँ अनन्तगुणहानि को छोड़कर अन्य हानियां सम्भव नहीं हैं। __ इस पर वहां यह शंका उत्पन्न हुई है कि सत्त्वस्थान अष्टांक और ऊर्वक के मध्य में ही होते हैं; चतुरंक, पंचांक, षडंक और सप्तांक के मध्य में नहीं होते हैं, यह कैसे जाना जाता है।
इसके समाधान में वहां कहा गया है कि वह "उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान में एक बन्ध
१. तदो चउत्थसमये लोग पूरेदि। लोगे पुण्णे एवका वग्गणा जोगस्स त्ति समजोगो त्ति
णायव्वो।-क० पा० सुत्त, पृ० ६०२, चू० ११-१२ २. धवला, पु० १०, पृ० ४५१ ३. देखिए धवला, पु० १२, पृ० १६० तथा कपा० का निम्न प्रसंग
सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्काणुभागसंतकम्मं कस्स? दसणमोहक्खवगं मोत्तूण सव्वस्स उक्कस्सयं । -कपा० सुत्त, पृ० १६०, चूणि ३३-३४ ४. धवला पु० १२, पृ० १२६-३०
५७८ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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