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________________ उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि कर्मस्थिति के प्रथम व द्वितीय आदि समयों में बाँधे गये कर्म का क्षीणकषाय के अन्तिम समय में एक भी परमाणु नहीं रहता है। यह क्रम पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र निलेपनस्थानों के प्रथम विकल्प तक चलता है। इस प्रसंग में यह पूछने पर कि निर्लेपनस्थान पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र ही होते हैं, यह कहाँ से जाना जाता है; उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह कसायपाहुडचुण्णिसुत्त से जाना जाता है। आगे कसायपाहुडचुण्णिसुत्तगत उस प्रसंग को यहाँ स्पष्ट भी कर दिया है, जो 'कसायपाहुड' में उपलब्ध भी होता है।' (E) इसी वेदनाद्रव्यविधान में पूर्वोक्त ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट द्रव्यवेदना के स्वामी के प्रसंग में प्राप्त सूत्र ३२ की व्याख्या में यह पूछने पर कि कर्मस्थिति के आदि समयप्रबद्ध का संचय अन्तिम निषेक-प्रमाण होता है, यह कैसे जाना जाता है, उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट संक्लेश के आश्रय से उत्कृष्ट स्थिति को बांधता हआ जितने परमाणुओं को कर्मस्थिति के अन्तिम समय में निषिक्त करता है उतने मात्र अग्रस्थितिप्राप्त होते हैं, ऐसा जो कसायपाहुड में उपदेश किया गया है उससे वह जाना जाता है।' उक्त वेदनाद्रव्यविधान में ज्ञानावरणीय की जघन्य द्रव्य वेदना के ही प्रसंग में दसरे 'प्रमाण' अनयोगद्वार की प्ररूपणा करते हुए धवला में यह शंका उठायी गयी है कि कसायपाहड में मोहनोजिन निलेपनस्थानों का उल्लेख किया है उन्हें ज्ञानावरण के निर्लेपनस्थान कैसे कहा जा सकता है । इसके उत्तर में धवलाकार ने इतना मात्र कहा है कि उसमें कुछ विरोध नहीं है (धवला, ". १०, पृ० २६८-६६)। (E) उक्त वेदनाद्रव्य विधान की चूलिका में वर्ग-वर्गणाओं के स्वरूप को प्रकट किया गया है। उस प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि सूत्र (४,२,१८०) में असंख्यात लोक मात्र अविभाग प्रतिच्छेदों की एक वर्गणा होती है, यह सामान्य से कहा गया है । इसीलिए उससे समान धनवाले नाना जीवप्रदेशों को ग्रहण करके एक वर्गणा होती है, यह नहीं जाना जाता है। ____ इसके उत्तर में धवला में कहा गया है कि सूत्र में समान धनवाली एक पंक्ति को ही वर्गणा कहा गया है, क्योंकि इसके बिना अविभागप्रतिच्छेदों की प्ररूपणा और वर्गणा की प्ररूपणा में भिन्नता न रहने का प्रसंग प्राप्त होता है तथा वर्गणाओं के असंख्यात प्रतर मात्र प्ररूपणा का भी प्रसंग प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त कसायपाहुड के पश्चिमस्कन्ध सत्र से १. धवला पु० १०, पृ० २६७; तत्थ पुव्वं गमणिज्जा पिल्लेवणट्टाणाणमुवदेसपरूवणा। एत्थ दुविहो उवएसो। एक्केण उवदेसेण कम्मट्ठिदीए असंखेज्जा भागा णिल्लेवणट्ठाणाणि । एक्केण उवएसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। जो पवाइज्जइ उवएसो तेण उवदेसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि वग्गमूलाणि णिल्लेवणाढाणाणि । -क० पा० सुत्त, पृ० ८१८, चूणि ९६४-६८ २. कम्मदिदिआदिसमयपबद्धसंचओ चरिमणिसेयपमाणमेत्तो होदि त्ति कधं णव्वदे? सण्णि पंचिदियपज्जत्तएण उक्कस्सजोगेण उक्सस्ससंकिलिट्ठण उक्कास्सियं दिदि बंधमाणेण जेत्तिया परमाणू कम्मट्ठिचरिमसमएणिसित्ता तेत्तियमेत्तमम्गट्ठिदिपत्तयं होदि त्ति कसायपाहुडे उवदिद्रुत्तादो।-धवला, पु० १०, पृ० २०८ ग्रन्थोल्लेख / ५७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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