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अर्थाधिकारों में जो परिकर्म नाम का प्रथम अर्थाधिकार रहा है उसके चन्द्रप्रज्ञप्ति - सूर्य प्रज्ञप्ति आदि पाँच भेदों में अन्तिम है । उसमें रूपी अजीव द्रव्य, अरूपी अजीव द्रव्य तथा भव्यसिद्धिक व अभव्यसिद्धिक जीवराशि की प्ररूपणा की गयी है । "
दिगम्बर- मान्यता के अनुसार उपर्युक्त दोनों प्रकार का व्याख्याप्रज्ञप्ति श्रुत लुप्त हो चुका है ।
(३) तीसरा व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, जिसका दूसरा नाम भगवतीसूत्र भी है, वर्तमान में श्वेताम्बर सम्प्रदाय में उपलब्ध है । ग्रन्थप्रमाण में वह पन्द्रह हजार श्लोक प्रमाण है । इसमें नरक, स्वर्ग, इन्द्र, सूर्य और गति आगति आदि अनेक विषयों की प्ररूपणा की गई है। *
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धवला में प्रसंगप्राप्त इस व्याख्याप्रज्ञप्ति के सन्दर्भ को मैंने यथावसर उसके अनुवाद के समय वर्तमान में उपलब्ध इस व्याख्याप्रज्ञप्ति में खोजने का प्रयत्न किया था । किन्तु उस समय वह मुझे उसमें उपलब्ध नहीं हुआ था । पर सन्दर्भगत वाक्यविन्यास की पद्धति और धवलाकार के द्वारा किये गये समाधान को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि वह वहाँ कहीं पर होना चाहिए । इस समय मेरे सामने उसका कोई संस्करण नहीं है, इसलिए उसे पुनः वहाँ खोजना शक्य नहीं हुआ ।
२०. सम्मइसुत्त - आचार्य सिद्धसेन दिवाकर विरचित प्राकृत गाथामय सन्मतिसूत्र दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में समान रूप से प्रतिष्ठित है। इसमें तीन काण्ड हैं- नयकाण्ड, जीवकाण्ड और तीसरा अनिर्दिष्टनाम । इनमें से प्रथम काण्ड में नय का और द्वितीय काण्ड में ज्ञान व दर्शन का विचार किया गया है। तीसरे काण्ड में सामान्य व विशेष का विचार करते हुए तद्विषयक भेदकान्त और अभेदेकान्त का निराकरण किया गया है। धवला में उसका उल्लेख ग्रन्थनाम-निर्देशपूर्वक दो प्रसंगों पर किया गया है । यथा
(१) धवला में मंगलविषयक प्ररूपणा विस्तार से की गयी है । वहाँ उस प्रसंग में कौन किन निक्षेपों को विषय करते हैं, इसका विचार करते हुए यह कहा गया है कि नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन नय सब निक्षेपों को विषय करते हैं ।
इस पर वहाँ यह शंका की गयी है कि सन्मतिसूत्र में जो यह कहा गया है कि नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीन निक्षेप द्रव्यार्थिकनय के विषयभूत हैं, किन्तु भावनिक्षेप पर्यायप्रधान होने से पर्यायार्थिकनय का विषय है। उसके साथ उपर्युक्त व्याख्यान का विरोध क्यों नहीं होगा ।
इसका समाधान करते हुए धवला में कहा गया है कि उक्त व्याख्यान का इस सन्मतिसूत्र के साथ कुछ विरोध नहीं होगा । इसका कारण यह है कि सन्मतिसूत्र में क्षणनश्वर पर्याय को भाव स्वीकार किया गया है, परन्तु यहाँ आरम्भ से लेकर अन्त तक रहने वाली वर्तमान स्वरूप व्यंजन पर्याय भाव स्वरूप से विवक्षित है । इसलिए विवक्षा भेद से इन दोनों में कोई विरोध
१. धवला, पु० १, पृ० १०६ १०
२. यह कई संस्करणों में प्रकाशित है।
३. णामं ठवणा दविए त्ति एस दव्वट्ठियस्स णिक्खेवो ।
भाव दुपज्जवट्टियपरूवणा एस परमट्ठो ॥ - सन्मति ०१-६
६०० / षट्खण्डागम- परिशीलन
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