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________________ होने वाला नहीं है। (२) इसी प्रकार का एक अन्य प्रसंग आगे 'कृति' अनुयोगद्वार में पुनः प्राप्त हुआ है। वहाँ सरकार ने कृति के नाम-स्थापनादिरूप सात भेदों का निर्देश करके उनमें कौन नय किन कतियों को विषय करता है, इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि नैगम, व्यवहार और संग्रह ये तीन नय सभी कृतियों को विषय करते हैं, किन्तु ऋजुसूत्रनय स्थापनाकृति को विषय नहीं करता_वह शेष कृतियों को विषय करता है। -सूत्र ४,१,४६-४६ इस प्रसंग में धवला में यह शंका की गयी है कि ऋजुसूत्रनय पर्यायाथिक है, ऐसी अवस्था में वह नाम, द्रव्य, गणना और ग्रन्थ इन कृतियों को कैसे विषय कर सकता है, क्योंकि उसमें हो और यदि वह उन चार कृतियों को विषय करता है तो स्थापनाकृति को भी वह विषय कर ले, क्योंकि उनसे उसमें कुछ विशेषता नहीं है। ___ इसके समाधान में धवला में कहा गया है कि ऋजुसूत्र दो प्रकार का है- शुद्ध ऋजसत्र और अशद्ध ऋजसूत्र । इनमें शुद्ध ऋजुसूत्रनय अर्थपर्याय को विषय करता है। तदनुसार उसका विषय प्रत्येक क्षण में परिणमते हुए समस्त पदार्थ हैं। सादृश्य -सामान्य और तद्भवसामान्य उसके विषय से बहिर्भूत हैं। इसलिए उसके द्वारा भावकृति को छोड़कर अन्य कृतियों को विषय करना सम्भव नहीं है, क्योंकि उनके विषय करने में विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है। इससे भिन्न जो दूसरा अशुद्ध ऋजुसूत्रनय है, वह चक्षु इन्द्रिय की विषयभूत व्यंजनपर्यायों को विषय करता है। उन व्यंजन-पर्यायों का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और छह मास अथवा संख्यात वर्ष है, क्योंकि द्रव्य की प्रधानता से रहित होकर चक्षु इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य उन व्यंजन-पर्यायों का उतने ही काल अवस्थान पाया जाता है।। इस पर वहाँ पुनः यह शंका उठी है कि यदि इस प्रकार का भी पर्यायाथिक नय है तो "पर्यायार्थिक नय की दृष्टि में पदार्थ नियम से उत्पन्न होते हैं और विनष्ट होते हैं, किन्त द्रव्याथिक नय की दष्टि में सभी पदार्थ उत्पाद और विनाश से रहित होते हुए सदाकाल अवस्थित रहते हैं" इस सन्मतिसूत्र से विरोध होता है। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि उसके साथ कुछ विरोध होने वाला नहीं हैं, क्योंकि अशुद्ध ऋजसूत्रनय व्यंजनपर्यायों को विषय करता है, अन्य सब पर्याय उसकी दष्टि में गौण रहती हैं। उधर उक्त सन्मतिसूत्र में शुद्ध ऋजुसूत्र की विवक्षा रही है । तदनुसार पूर्वापर कोटियों के अभाव से उत्पत्ति व विनाश को छोड़कर उसकी दृष्टि में अवस्थान नहीं पाया जाता। इसलिए ऋजुसूत्रनय में स्थापना को छोड़कर अन्य सब निक्षेप सम्भव हैं । स्थापनानिक्षेप की असम्भावना इसलिए प्रकट की गयी है कि अशुद्ध ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में संकल्प के वश अन्य द्रव्य का अन्य स्वरूप से परिणमन नहीं उपलब्ध होता। कारण यह कि इस नय की दृष्टि में सदशता से द्रव्यों में एकता नहीं पायी जाती है। पर स्थापना-निक्षेप में उसकी अपेक्षा रहा करती है। १. धवला पु० १, पृ० १४-१५ २. सन्मतिसूत्र १-११ (यह गाथा इसके पूर्व पु० १, पृ० १४ में भी अन्य तीन गाथाओं के साथ उद्धृत की जा चुकी है ) ३. धवला पु० ६, पृ० २४३-४५ प्रन्थोल्लेख६०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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