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________________ पृष्ठ ४८६ ४६० ४६१ ५०६ : WW८० पंक्ति शुद्ध २९-३० अभिप्राय था २१ २४०-२३१ २८-२६ यह उनकी पृ०४०८ २६ हैं जबकि तत्त्वार्थसूत्र वह पराधीन होने प्राप्त वायें है । तदनुसार अपने XXXआनुषंगिक निरूपण प्रक्रमस्वरूप प्रथमतः उत्तरप्रकृति भेदों नोआगमद्रव्य कर्मोपक्रम YU Y movY ५३७ २८ १६ xxxx MANG अवस्थान को अर्थविषयक पदों णिबंधणातिविह भागहामिति के संग में टिप्पण १ भी तीन सूत्रों ४,२,१८० भावप्रमाण अइया अशुद्ध अभिप्राय निकलता था २४०-३१ यह क्रम उनकी ४.८ हैं वहाँ तत्त्वार्थसूत्र वह स्वाधीन होने प्राप्त संयत के वायें है कि अपने इस प्रकार आनुषंगिक निरूपण करते हुए प्रकृतिप्रक्रमस्वरूप प्रथमतः उत्कृष्ट प्रकृति भेदों को स्पष्ट करते हुए उनमें नोआगमद्रव्यकर्मोपक्रम अवस्था को अर्थविषम पदों णिबंधणतिविह भागहारमिदि के प्रसंग में टिप्पण ३ भी तीन गाथासूत्रों ४,२,४,१८० भागप्रमाण अहवा पु० १०, का पूर्वार्ध (पृ० ५८३) ८-६ भाग २ ध्यान संसार एकत्ववितर्क के होने पर पु० १२, ५७४ ५७७ १८६ ५६२ ५९७ ६१४ .. w का उत्तरार्ध (पृ० १००७-२३) ८-६६ भाग ३ ध्यान भी संसार एक वितर्क के न होने पर पु०१३, w १२ २६ : 0 m U २ r : २० २८ x महावाचमाणं उसमें धवलाकार महावाचयाणं उसमें जयधवलाकार ६५३ शुद्धि-पत्र । ९१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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