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________________ पंक्ति पृष्ठ ३३५ ३५० ३६७ शुद्ध समाचरणीय प्रश्रवण उनसे क्रमशः ३७४ ३८३ ३८३ ३६५ ४०१ २४ २६ १४ WWW XXXप्रसंग में तथा शेष एक आवली से आठ प्रथम प्रसंग प्राप्त यदि आचार्यों अगृहीतकाल में नहीं है पृ० १३७-३६ स्थितिबन्धक समान पीछे पर व्याख्या को पर वृष्टिकरण भावबन्ध के महादण्डक को क्षुद्रकबन्ध ४३७ ३५ ४४० २४ २४ ४४५ ४४६ ४५२ अशुद्ध सातावेदनीय प्रज्ञाश्रवण उनसे तत्त्वार्थसूत्र (१.७) के समान क्रमशः अर्थाधिकार के प्रसंग में तथा अनुदयप्राप्त शेष एक समय कम आवली से प्रथम प्रसंग नहीं प्राप्त यदि अन्य आचार्यों अगृहीतग्रहणकाल में बाधा सम्भव नहीं है पृ० १३७-३६ स्थितिबन्ध समान पीछे पृ० ३६५ पर व्याख्यान को पर कृष्टिकरण भाव बन्ध के महादण्डक को किसलिए प्रारम्भ किया गया है । उत्तर में धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि उस महादण्डक को क्षुद्रकबन्ध बन्ध के बन्ध का प्रारम्भ होता है और चिन्ता से और चिन्ता सम्यक्त्व उसका कथन जानकर करना चाहिए दिन पूर्वाद में उसने अनुसार उसका अर्थ कार्य यहाँ उत्कृष्ट-अनुकृष्ट आदिरूप भेदपदों का अधिकार है ऐसे वे पद तेरह हैं। विशेष की अपेक्षा न कर ज्ञानावरणीय और सम ये समानार्थक १४ ४५७ ४५६ ४५६ ४६४ १ १८-१६ बन्धक के बन्ध होता है और चिन्तन से और चिन्तन सम्यक्त्व उसका कथन जानकर ही निर्णय कर लेना चाहिए दिन उसने अनुसार कार्य यहाँ अधिकार विवक्षा से भेदपद तेरह हैं। ४६६ २८ ४७८ ४७६ ११ विशेष के अभाव से ज्ञानावरणीय ४८० २ और समय समानार्थक ६१४ / षटखण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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