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________________ विसंयोजना करता है। उसके तीनों करण होते हैं । आगे इन करणों में होने और न होनेवाले कार्यों का विचार किया गया है। इस प्रकार अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करके जीव अन्तर्मुहूर्त अधःप्रवृत्त होता हुआ प्रमत्तगुणस्थान को प्राप्त होता है । वहाँ वह असातावेदनीय, अरति, शोक और अयशःकीर्ति आदि कर्मों को अन्तर्मुहूर्त बाँधकर तत्पश्चात् दर्शनमोहनीय को उपशमाता है। यहाँ भी तीनों करणों के करने का विधान है। यहाँ स्थितिघात, अनुभागघात और गणश्रेणि की जाती है । इन सब की प्ररूपणा दर्शनमोहनीय की क्षपणा के समान है। तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर दर्शनमोहनीय का अन्तर करता है । फिर इस अन्तरकरण में होनेवाले कार्य का विचार किया गया है । टस प्रकार दर्णनमोहनीय का उपशम करके प्रमत्त व अप्रमत्स गुणस्थानों में असाता, अरति, शोक, अयशःकीति आदि कर्मों के हजारों बार बन्धपरावर्तनों को करता हुआ कषायों को उपशमाने के लिए अधःप्रवृत्तकरण परिणामों से परिणत होता है । यहाँ पूर्व के समान स्थितिघात, अनुभागघात और गुणसंक्रमण नहीं होते। संयमगुणश्रेणि को छोड़कर अधःप्रवृत्तकरण परिणामनिमित्तक गुणश्रेणि भी नहीं होती। केवल प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि से वृद्धिंगत होता है। ___ आगे अपूर्वक रण के प्रथम समय में स्थितिकाण्डक आदि को जिस प्रमाण में प्रारम्भ करता है उसका विवेचन है। इस क्रम से अपूर्वकरण के सात भागों में से प्रथम भाग में निन्द्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों का बन्धयुच्छेद हो जाता है । पश्चात् अन्तमहूर्तकाल के बीतने पर उसके सात भागों में से पाँच भाग जाकर देवगति के साथ बन्धने वाले परभविक देवगति व पंचेन्द्रिय जाति. आदि नामकर्मों के बन्ध का व्युच्छेद होता है। तत्पश्चात् उसके अन्तिम समय में स्थितिकाण्डक, अनुभागकाण्डक और स्थिति बन्ध एक साथ समाप्त होते हैं। उसी समय हास्य, रति, भय और जुगप्सा इन चार प्रकृतियों के बन्ध का व्युच्छेद होता है । हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा कर्मों के उदय का भी व्युच्छेद वही पर होता है। ____ अनन्तर वह प्रथम समयवर्ती अनिवृत्तिकरणवाला हो जाता है । उस समय उसके स्थितिकाण्डक आदि जिस प्रमाण में होते हैं उसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा है कि उसी अनिवृत्तिकरणकाल के प्रथम समय में अप्रशस्त उपशामनाकरण, नितिकरण और निकाचनाकरण व्युच्छेद को प्राप्त होते हैं। जिस कर्म को उदय में नहीं दिया जा सकता है उसे उपशान्त, जिसे संक्रम व उदय इन दो में नहीं दिया जा सकता है उसे निधत्त तथा जिसे अपकर्षण, उत्कर्षण, उदय और संक्रम इन चारों में भी नहीं दिया जा सकता है उसे निकाचित कहा जाता है। उस समय आय को छोड़, शेष कर्मों का स्थितिमत्त्व अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण और स्थितिबन्ध अन्त:कोडाकोड़ी में लाखपृथकत्व प्रमाण होता है । इस प्रकार से हजारों स्थितिकाण्डकों के बीतने पर अनिवृत्तिकरणकाल का संख्यात बहुभाग बीत जाता है । उस समय स्थितिबन्ध असंजीपंचेन्द्रिय के स्थितिबन्ध के समान होता है। तत्पश्चात वह क्रम से हीन होता हआ चतूरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि के स्थितिबन्ध के समान होता जाता है। यहीं पर नाम, गोत्र आदि कर्मों का स्थितिबन्ध किस प्रकार हीन होता गया है, इसे भी स्पष्ट कर दिया गया है । आगे उसके अल्पबहुत्व को भी बतलाया गया है। अल्पबहुत्व की इस विधि से संख्यात हजार स्थितिकाण्डकों के बीतने पर मनःपर्ययज्ञानावरणीय व दानान्तराय आदि कर्मप्रकृतियों का अनुभाग बन्ध से किस प्रकार देशघाती होता गया है, इसे दिखलाते हुए स्थितिबन्ध का अल्पबहुत्व भी निर्दिष्ट है । बदलण्डागम पर टीकाएँ / ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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