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________________ इस प्रकार देशघाती करने के पश्चात् संख्यात हजार स्थितिबन्धों के बीतने पर बारह कषायों और नौ नोकषायों के अन्तरकरण को करता है । अन्तरकरण की यह प्रक्रिया भी यहाँ वर्णित है । आगे बढ़ते हुए वह किस क्रम से किन-किन प्रकृतियों के उपशम आदि को करता है, धवला में इसकी विस्तार से चर्चा है। इस क्रम से वह सूक्ष्मसाम्परायिक हो जाता है, तब उसके अन्तिम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का बन्ध अन्तर्मुहूर्त मात्र, नाम और गोत्र कर्मों का सोलह मुहूर्त तथा वेदनीय का चौबीस मुहूर्तमात्र रह जाता है । अनन्तर समय में समस्त मोहनीय कर्म उपशम को प्राप्त हो जाता है। यहां से वह अन्तर्मुहूर्तकाल तक उपशान्तकषाय वीतराग रहता है। समस्त उपशान्तकाल में अवस्थित परिणाम होता है। आगे किन कर्मप्रकृतियों का किस प्रकार का वेदन होता है, इसे स्पष्ट किया गया है । इस प्रकार से औपशमिक चारित्र के प्राप्त करने की विधि को प्ररूपणा समाप्त हुई है (पु० ६, २८८-३१६) । उपशमणि से पतन औपशमिक चारित्र मोक्ष का कारण नहीं है, क्योंकि वह अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् नियम से मोह के उदय का कारण है । उपशान्तकषाय का प्रतिपात दो प्रकार से होता है-भवक्षय के निमित्त से और उपशान्तकषायकाल के समाप्त होने से । इनमें भवक्षय के निमित्त से उसका जो प्रतिपात होता है उसमें देवों में उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही सब करण (उदीरणा आदि) प्रकट हो जाते हैं । जो कर्म उदीरणा को प्राप्त होते हैं वे उदयावलि में प्रविष्ट हो जाते हैं और जो उदीरणा को प्राप्त नहीं होते उनको भी अपकर्षित करके उदयावलि के बाहर गोपुच्छश्रेणि में निक्षिप्त किया जाता है । ___ उपशान्त काल के क्षय से गिरता हुआ वह उपशान्तकषाय वीतराग लोभ में ही गिरता है, क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानों को छोड़कर अन्य किसी गुणस्थान में उसका जाना सम्भव नहीं। इस प्रकार क्रम से नीचे गिरते हुए उसके अनिवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अधःप्रवृत्तकरण में विभिन्न कर्मप्रकृतियों के स्थितिबन्ध आदि उत्तरोत्तर जिस प्रक्रिया से वृद्धिंगत होते गये हैं धवला में उसकी विस्तार से प्ररूपणा की गयी है (पु० ६, पृ० ३१७-३१) । __इस प्रकार से गिरता हुआ वह अधःप्रवृत्तकरण के साथ उपशमसम्यक्त्व का पालन करता है। इस उपशम (द्वितीयोशम) काल के भीतर वह असंयम को भी प्राप्त हो सकता है, संयमासंयम को भी प्राप्त हो सकता है और उसमें छह आवलीमात्र काल के शेष रह जाने पर वह कदाचित् सासादनगुणस्थान को भी प्राप्त हो सकता है । सासादन अवस्था को प्राप्त होकर यदि वह मरण को प्राप्त होता है तो नरकगति, तिर्यंचगति और मनुष्यगति में न जाकर नियम से देवगति में जाता है। यहाँ धवलाकार ने स्पष्ट किया है कि यह प्राभूत (कषायप्राभृत) चूर्णिसूत्र का अभिप्राय है। भूतबलि भगवान् के उपदेश के अनुसार उपशमणि से गिरता हुआ जीव सासादन अवस्था को प्राप्त नहीं होता है । तीन आयुकर्मों में किसी भी एक के बँध जाने पर वह कषाय का उपशम करने में समर्थ नहीं होता है इसलिए वह नरक, तिर्यंच और मनुष्यगति को प्राप्त नहीं होता है। ४४४/ षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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