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________________ सम्पूर्ण चारित्र की प्राप्ति ___ आगे दो (१,६-८, १५-१६) सूत्रों में कहा गया है कि सम्पूर्ण चारित्र को प्राप्त करनेवाला जीव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार कर्मों की स्थिति को अन्तर्मुहूर्तमात्र, वेदनीय की बारह मुहूर्त, नाम व गोत्र इन दो कर्मों की आठ अन्तर्मुहूर्त और शेष कर्मों की भिन्न मुहूर्त प्रमाण स्थिति को स्थापित करता है। इनकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने कहा है कि ये दोनों सूत्र देशामर्शक हैं, इसलिए इनके द्वारा सूचित अर्थ की प्ररूपणा करते हुए धवला में चारित्रमोह की क्षपणा में अधःप्रवृत्तकरणकाल, अपूर्वकरणकाल और अनिवृत्तिकरणकाल इन तीनों के होने का निर्देश है। इनमें से अधःप्रवृत्तकरण में वर्तमान जीव के स्थितिघात और अनुभागघात नहीं होता है । वह केवल उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि से वृद्धिंगत होता है।। ___आगे यहाँ अपूर्वकरण में होनेवाले स्थितिकाण्डक, अनुभागकाण्डक, गुणसंक्रम, गुणश्रेणि, स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व आदि की विविधता का विवेचन है । इस प्रकार हजारों स्थितिबन्धों के द्वारा अपूर्वकरणकाल का संख्यातवाँ भाग बीत जाने पर निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों के बन्ध का व्युच्छेद हो जाता है। तत्पश्चात् हजारों स्थितिबन्धों के बीतने पर देवगति के साथ बँधनेवाले नाम कर्मों के बन्ध का व्युच्छेद होता है। अनन्तर हजारों स्थितिबन्धों के बीतने पर वह अपूर्वकरण के अन्तिम समय को प्राप्त होता है (धवला पु. ६, पृ० ३४२-४८)। इसी प्रकार अनिवत्तिकरण में प्रविष्ट होने पर वह जिस प्रकार से उत्तरोत्तर कर्मों के स्थितिबन्ध, स्थितिसत्त्व और अनुभागबन्ध को हीन करता है उस सब की प्ररूपणा य में विस्तार से की गयी है । इस क्रम से अनिवृत्तिकरण के अन्त में संज्वलनलोभ का स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त, तीन घातिया कर्मों का दिन-रात के भीतर तथा नाम, गोत्र व वेदनीय का बन्ध वर्ष के भीतर रह जाता है । उस समय मोहनीय का स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहर्त, तीन घातिया कर्मों का संख्यात हजार वर्ष तथा नाम, गोत्र व वेदनीय का स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्षप्रमाण होता है (धवला पु० ६, पृ० ३४८-४०३)। __ पश्चात् धवला में सूक्ष्मसाम्प रायिक गुणस्थान में प्रविष्ट होने पर वृष्टिकरण आदि क्रियाओं का प्रक्रियावद्ध विचार किया गया है । इस प्रक्रिया से आगे बढ़ते हुए अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक के नाम व गोत्र कर्मों का स्थितिवन्ध आठ मुहूर्त, वेदनीय का बारह मुहूर्त और तीन घातिया कर्मों का स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तमात्र और उन तीनों का स्थितिसत्त्व भी अन्तर्मुहूर्त मात्र रहता है। नाम, गोत्र और वेदनीय का स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्ष रहता है। मोहनीय का स्थितिसत्त्व वहाँ नष्ट हो जाता है (पु० ६, पृ० ४०३-११)। अनन्तर समय में वह प्रथम समयवर्ती क्षीणकषाय हो जाता है। उसी समय वह स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध से रहित हो जाता है । इस प्रकार से वह एक समय अधिक आवली. मात्र छदमस्थकाल के शेष रह जाने तक तीन घातिया कर्मों की उदीरणा करता है। पश्चात उसके द्विचरम समय में निद्रा व प्रचला प्रकृतियों के सत्त्व व उदय का व्युच्छेद हो जाता है। उसके पश्चात् उसके ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्त राय कर्मों के सत्त्व-उदय का व्युच्छेद होता है । तब वह अनन्त केवलज्ञान, केवलदर्शन और वीर्य से युक्त होकर जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी व सयोगिकेवली होता हुआ असंख्यातगुणित श्रेणि से निर्जरा में प्रवृत्त रहता है। पश्चात अन्तर्मुहूर्त आयु के शेष रह जाने पर वह केवलिसमुद्घात को करता है । उसमें बट्सण्डागम पर टीकाएँ / ४४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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