SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 716
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग-इसके पूर्व त०सू० में जीव का लक्षण उपयोग बतलाकर उसे ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। आगे इनमें से ज्ञान को आठ प्रकार का और दर्शन को चार प्रकार का कहा गया है।' त०सू० का यह विवरण पंचास्तिकाय की इन तीन गाथाओं के आश्रित है उवओगो खलु दुविहो णाणेण य वंसणेण संजुत्तो। जीवस्स सम्वकालं अणण्णभूदं वियाणाहि ॥४०॥ आभिणि-सुदोधि-मण-केवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि । कुदि-सुद-विभंगाणि य तिण्णि वि णाणेहि संजुत्ते ॥४१॥ दसणमवि चक्खुजुदं अचक्खुजुदमवि य ओहिणा सहियं । अणिधणमणंतविसयं केवलियं चावि पण्णत्तं ।।४२।। इसी प्रकार से और भी कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं । जैसे त०स० १-१ व पंचास्तिकाय गा० १६४; त०सू० २.१ व पंचास्तिकाय गाथा ५६; तथा त०सू० ६-३ व ८,२५-२६ और पंचास्तिकाय गाथा १३२; इत्यादि । __ इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आचार्य गृद्धपिच्छ आ० कुन्दकुन्द (लगभग प्रथम शती) के पश्चात् हुए हैं। (३) मूलाचार-षट्खण्डागम व पंचास्तिकाय आदि के समान मूलाचार का भी प्रभाव तत्त्वार्थसूत्र पर अधिक दिखता है। यथा क-त०सू० में जीवादि तत्त्वों के अधिगम के उपायभूत प्रमाण और नय के उल्लेख (१-६) के पश्चात् निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान इन छह अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र का यह कथन मूलाचार की इस गाथा पर आधारित है कि केण कस्स कत्थ व केवचिरं कदिविधो य भावो य । छहि अणिओगद्दारे सव्वे भावाणुगंतव्वा ।।-गा० ८-१५ इस गाथा में प्रश्न के रूप में जिन निर्देश-स्वामित्व आदि को अभिव्यक्त किया गया है, उन्हीं का उल्लेख त०सू० में स्पष्ट शब्दों द्वारा कर दिया गया है। यहाँ यह विशेष ध्यातव्य है कि उपर्युक्त गाथा जीवसमास में भी गायांक ४ के रूप में उपलब्ध होती है। सम्भव है मूलाचार में उसे जीवसमास से ही आत्मसात् किया गया हो। कारण यह है कि जीदसमास में वह जिस प्रकार प्रसंग के अनुरूप दिखती है उस प्रकार से वह मलाचार में प्रसंग के अनुरूप नहीं दिखती है। इसका भी कारण यह है कि वहाँ संसारानप्रेक्षा का प्रसंग रहा है। इस गाथा से पूर्व की गाथा (८-१४) में स्पष्ट शब्दों द्वारा द्रव्य-क्षेत्रादि के भेद से चार प्रकार के संसार के जानने की प्रेरणा की गयी है । पर इस गाथा में संसार का कहीं किसी प्रकार से उल्लेख नहीं किया गया है। इससे वह संसारानुप्रेक्षा के अनुरूप नहीं दिखती। १. उपयोगो लक्षणम् । स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ।-त०सू० २,८-६; इसके पूर्व के सूत्र १-६ और १-३१ भी द्रष्टव्य हैं । २. निर्देश-स्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थिति-विधानतः।–त सू०१-७ ६६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy