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प्रवचनसार आदि का भी प्रभाव रहा है । यथा
प्रवचनसार-तत्त्वार्थसूत्र में पदार्थावबोधक के हेतुभूत प्रमाण और नयों का विचार करते हए उस प्रसंग में मति-श्रुतादि पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहा गया है व उसे परोक्ष और प्रत्यक्ष इन भेदों में विभक्त किया गया है। उनमें इन्द्रियसापेक्ष मति और श्रत इन दो जानों को परोक्ष और अवधिज्ञानादि शेष तीन अतीन्द्रिय ज्ञानों को प्रत्यक्ष कहा गया है। __ तत्त्वार्थसूत्र का यह विवेचन प्रवचनसार के इस प्रसंग पर आधारित रहा है-वहाँ आत्मस्वभाव से भिन्न इन्द्रियों को पर बतलाते हुए उनके आश्रय से होने वाले ज्ञान की प्रत्यक्षरूपता का प्रतिषेध किया गया है तथा आगे परोक्ष और प्रत्यक्ष का यह लक्षण प्रकट किया गया है--
जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख त्ति भणिदमत्थेस ।
जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पच्चक्खं ॥-गाथा १-५८ इसका अभिप्राय यही है कि जो ज्ञान इन्द्रियादि पर की सहायता से होता है उसे परोक्ष, तथा परनिरपेक्ष केवल आत्मा के आश्रय से होनेवाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है। इसी अभिप्राय को तत्त्वार्थसूत्र में प्रकृत सूत्रों के द्वारा अभिव्यक्त किया गया है।
पंचास्तिकाय-तत्त्वार्थसूत्र में अजीव द्रव्यों का निरूपण करते हुए सर्वप्रथम वहां धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल इन चार अजीव द्रव्यों को अजीव होते हुए काय (अस्तिकाय) कहा गया है। आगे इन्हें द्रव्य कहते हुए जीवों को भी इससे सम्बद्ध कर दिया गया है, अर्थात् जीव भी द्रव्य होकर अस्तिकाय स्वरूप हैं, इस अभिप्राय को प्रकट कर दिया गया है। क-त०सू० का यह विवेचन पंचास्तिकाय की इस गाथा पर आधारित रहा है
जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा तहेव आयासं ।।
अत्थित्तम्हि य णियदा अणण्णमइया अणुमहंता ।। -गा० ४ ख-यहीं पर आगे त०सू० में 'सत्' को द्रव्य का लक्षण बतलाकर उस 'सत्' के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होता है, उसे 'सत्' कहा जाता है।
आगे चलकर प्रकारान्तर से द्रव्य के लक्षण में यह भी स्पष्ट किया गया है कि जो गुण और पर्यायों से सहित होता है, वह द्रव्य कहलाता है ।
त०स० का यह कथन पंचास्तिकाय की इस गाथा से पूर्णतया प्रभावित है, जिसमें द्रव्य के उन दोनों लक्षणों को एक साथ उन्हीं शब्दों में अभिव्यक्त कर दिया गया है
दव्वं सल्लक्खणियं उप्पाद-व्वय-धुवत्तसंजुत्तं । गुण-पज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ॥-गा० १०
१. मति-श्रुतावधि-मनःपर्यय-केवलानि ज्ञानम् । तत्प्रमाणे । आद्य परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत्।
-त०सू० १,६-१२ २. इसकी पूर्व की गाथा ५६-५७ भी द्रष्टव्य हैं। ३. अजीवकाया धर्माधर्माकाश-पुद्गलाः । द्रव्याणि । जीवाश्च ।-त०स० ५,१-३ ४. इससे आगे की गाथाएँ ५,६ और २२ भी द्रष्टव्य हैं। ५. सद् द्रव्यलक्षणम् । उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् । -तसू० ५,२६-३० ६. गुण-पर्ययवद्-द्रव्यम् ।-त०सू० ५-३८
ग्रन्थकारोल्लेख/६६१
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