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________________ आगे धवला में यथाप्रसंग गति आदि मार्गणाओं में भी इन प्रत्ययों की प्ररूपणा संक्षेप में की गई है। ___पंचसंग्रह में यह प्ररूपणा एक साथ विस्तार से १७ (८४-१००) गाथाओं में की गई है। समस्त प्रत्ययप्ररूपणा १४० (४,७७-२१६) गाथाओं में हुई है। ३. षट्खण्डागम में जीवस्थान से सम्बद्ध नौ चूलिकाओं में छठी 'उत्कृष्टस्थिति' और सातवीं 'जघन्यस्थिति' चूलिका है। इन दोनों में क्रम से पृथक्-पृथक् उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति की प्ररूपणा की गई है। इस प्रसंग में वहाँ यथासम्भव विभिन्न कर्मों की स्थिति प्रकट करते हुए उनमें किन का कितना आबाधाकाल और निषेकस्थिति सम्भव है, स्पष्ट किया गया है । उस प्रसंग में वहां सर्वत्र सामान्य से यह सूत्र उपलब्ध होता है "आबाधुणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेओ'।" सूत्र १,६-६,६ आदि । आयुकर्म के आबाधाकाल और निषेकस्थिति में अन्य ज्ञानावरणादि कर्मों की अपेक्षा विशेषता है, अत: उसका विचार अलग से किया गया है । पंचसंग्रह में प्राय: यही अभिप्राय इस गाथा के द्वारा प्रकट किया गया है आबाधूणद्विदी कम्मणिसेओ होइ सत्तकम्माणं। ठिदिमेव णिया सव्वा कम्मणिसेओ य उस्स ॥४-३६५० ४. वेदनाद्रव्य विधान की चूलिका में सूत्रकार ने योगस्थानों को ही प्रदेशबन्धस्थान बतलाते हुए विशेष रूप में उन प्रदेशबन्धस्थानों को प्रकृतिविशेष से विशेष अधिक कहा है । सूत्र ४,२,४,२१३ (पु. १०)। इसकी व्याख्या करते हुए धवला में कहा गया है कि समान कारणता के होने पर भी प्रकृति विशेष से कर्मों के प्रदेशबन्धस्थान प्रदेशों की अपेक्षा विशेष अधिक हैं। इसी प्रसंग में आगे एक योग से आये हुए एक समयप्रबद्ध में आठ मूल प्रकृतियों में किसको कितना भाग प्राप्त होता है, इसे स्पष्ट करते हुए 'वुत्तं च' इस निर्देश के साथ ये दो गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं आउअभागो थोवो णामा-गोदे समो तदो अहिओ। आवरणमंतराए भागो अहिओ दु मोहेवि ॥ सव्वुवरि वेयणीए भागो अहिओ दु कारणं किंतु । पडिविसेसो कारण णो अण्णं तवणुवलंभादो ॥ -पु. १०, पृ० ५११-१२ ये दोनों गाथाएं इसी रूप में पंचसंग्रह में भी उपलब्ध हैं। विशेष इतना है कि दूसरी गाथा का उत्तरार्ध वहाँ इस प्रकार है सुह-दुक्खकारणताट्टिदिविसेसेण सेसाणं ॥४-८६ उत्त. १. सूत्र ६,६-६,६ व आगे १२,१५,१८,२१ आदि (उत्कृष्ट स्थिति) तथा आगे सूत्र १,६-७,५ व ८,११,१४,१७,२० आदि (जघन्य स्थिति) । पु० ६ २. ष० ख० पु० ६, सूत्र १, ६-६, २२-२६ तथा १,६-७, २७-३४ ३. यह गाथा कर्मकाण्ड (१६०) में भी कुछ थोड़े से परिवर्तन के साथ उपलब्ध होती है। ४. मूल गाथा ४. ८८-८६ व भाष्य गाथा ४,४६६-६७ षट्कण्डागम की अन्य पन्यों से तुलना / २६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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