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इसी अभिप्राय को कर्मकाण्ड में भी दो गाथाओं (१६२-६३) द्वारा प्रकट किया गया है, जिनमें प्रथम गाथा का पूर्वार्ध तीनों ग्रन्थों में समान है।
५. यह पूर्व में कहा जा चुका है कि मूल षट्खण्डागम में महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के अन्तर्गत जो २४ अनुयोगद्वार रहे हैं उनमें से प्रार' के कृति-वेदनादि छह अनुयोगद्वारों की ही प्ररूपणा की गई है, शेष निबन्धन आदि १८ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा वहां नहीं हुई है। उनकी प्ररूपणा धवलाकार वीरसेनाचार्य के द्वारा की गई है।
उन २४ अनुयोगद्वारों में १३वाँ लेश्या' अनुयोगद्वार है। इसमें 'लेश्या' का निक्षेप करते हए उस प्रसंग में धवलाकार ने चाइन्द्रिय से ग्राह्य पुद्गलस्कन्ध को तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्य लेश्या कहा है तथा उसे कृष्ण-नीलादि के भेद से छह प्रकार का निर्दिष्ट किया है। उनमें किन के कौन-सी लेश्या होती है, इसे स्पष्ट करते हुए भ्रमर व अंगार आदि के कृष्णलेश्या, नीम व कदली आदि के पत्तों के नीललेश्या, क्षार व कबूतर आदि के कापोत लेश्या, कंकम व जपाकुसुम आदि के तेजोलेश्या, तडवड व पद्मकुसुम आदि के पद्मलेश्या तथा हंस ध बलाका आदि के शुक्ललेश्या कही गई है । आगे वहाँ 'वुत्तं च' कहकर जिन "किण्णं भमर सवण्णा" आदि दो गाथाओं को उद्धृत किया गया है। वे प्रस्तुत पंचसंग्रह में 'जीवसमास' अधिकार के अन्तर्गत १८३-८४ गाथांकों में उपलब्ध होती है।
आगे धवला में शरीराश्रित छहों लेश्याओं की प्ररूपणा है। जैसे
तियंच योनिवाले जीवों के शरीर छहों लेश्याओं से युक्त होते हैं-कितने ही कृष्णलेश्या वाले व कितने ही नीललेश्यावाले, इत्यादि । इसी प्रकार आगे तिर्यंच योनिमतियों, मनुष्यमनुष्यनियों, देवों, देवियों, नारकियों और वायुकायिकों में यथासम्भव उन लेश्याओं की प्ररूपणा की गई है।
आगे वहाँ चक्षुइन्द्रिय से ग्राह्य द्रव्य के अल्पबहुत्व को भी प्रकट किया गया है। जैसे--- कापोतलेश्यावाले द्रव्य के शुक्लगुण स्तोक, हारिद्र गुण अनन्तगुणे, लोहित अनन्तगुणे, नील अनन्तगुणे और श्याम अनन्तगणे होते हैं, इत्यादि ।
इस प्रकार का लेश्याविषयक विवरण पंचसंग्रह में दृष्टिगोचर नहीं होता, जबकि वहाँ 'जीवसमास अधिकार के उपसंहार में तिर्यंच मनुष्यों आदि में सम्भव लेश्याएं आदि स्पष्ट की गयी हैं, यह पूर्व में कहा ही जा चुका है।
धवला में आगे १४वाँ अनयोगद्वार 'लेश्याकर्म' है । इसमें उक्त छहों लेश्यावाले जीवों के कर्म-मारण-विदारण आदि क्रियाविशेष-की यथाक्रम से प्ररूपणा है। उस प्रसंग
१. धवला पु० १६, पृ० ४८४-८५ २. गाथा १८४ का चतुर्थ चरण भिन्न है । ३. धवला पु० १६, पृ० ४८५-८८ ४. पंचसंग्रह गाथा १,१८६-६२; इस प्रकार का विचार गो० जीवकाण्ड (४६५-६७) में
भी किया गया है। लेश्याविषयक विशेष प्ररूपणा तत्त्वार्थवातिक में 'निर्देश' प्रादि १६ अनुयोगद्वारों के आश्रय से विस्तारपूर्वक की गई है (तत्त्वार्थवातिक ४,२२,१०)। जीवकाण्ड में जो उन्हीं १६ अनुयोगद्वारों में लेश्याविषयक प्ररूपणा की गई है (४६०-५५४), सम्भव है उसका आधार यही तत्त्वार्थवार्तिक का प्रकरण रहा हो।
२६८ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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