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________________ में वहां क्रम से प्रत्येक लेश्या के सम्बन्ध में 'वुत्तं च' कहकर कुछ प्राचीन गाथाओं को उद्धृत किया गया है । उनकी संख्या क्रम से १-1-२+३+१+१+१= है।' ये गाथाएँ उसी क्रम से पंचसंग्रह (१,१४४-५२) और गो० जीवकाण्ड (५०८-१६) में उपलब्ध होती हैं। विशेष प्ररूपणा लेश्या की विशेष प्ररूपणा पा० भट्टाकलंकदेव विरचित तत्त्वार्थवातिक (४,२२,१०) में निर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रम, कर्म, लक्षण, गति, स्वामित्व, साधन, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन सोलह अधिकारों में की गई है। __ यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि धवलाकार ने लेश्या (१३), लेश्याकर्म (१४) और लेश्यापरिणाम (१५) अनुयोगद्वारों में लेश्याविषयक विशेष प्ररूपणा क्यों नहीं की; जबकि उनके पूर्ववर्ती आ० भट्ठाकलंकदेव ने उसके उपर्युक्त १६ अनुयोगद्वारों के आश्रय से विशद विवेचन किया है। ___इसके समाधान में कहा जा सकता है उसका विवेचन चूंकि षट्खण्डागम में प्रसंगानसार यत्र-तत्र हआ है, इसीलिए उन्होंने उसकी विशेष प्ररूपणा यहाँ नहीं की है। उदाहरण के कपा में उन निर्देश आदि १६ अनुयोगद्वारों में प्रथम 'निर्देश' है । तदनुसार जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत प्रथम सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में उसका निर्देश कर दिया गया है । (सूत्र १,१,१३६) दसरा 'वर्ण' अनयोगद्वार है। तदनुसार धवलाकार ने द्रव्यलेश्यागत वर्णविशेष की प्ररूपणा 'लेश्या' अनुयोगद्वार (१३) में की है। तीसरे परिणाम अनुयोगद्वार के अनुसार उसकी प्ररूपणा धवला के अन्तर्गत यहीं पर 'लेश्यापरिणाम' अनुयोगद्वार (१५) में की गई है । स्वस्थान-परस्थान में कृष्णादि लेश्याओं का संक्रमण किस प्रकार से होता है, इसका स्पष्टीकरण जिस प्रकार तत्त्वार्थवार्तिक में संक्रम अधिकार के आश्रय से किया गया है उसी प्रकार धवला में इस 'लेश्यापरिणाम' अनयोग द्वार में किया गया है। इसी प्रकार वह लेश्याविषयक विशेष प्ररूपणा हीनाधिक रूप में कहीं मूल षटखण्डागम में और कहीं उसकी इस धवला टीका में की गई है । मूल प० ख० में जैसे___ गतिविषयक प्ररूपणा 'गति-आगति' चूलिका में (सूत्र १,६-६, ७६-२०२), स्वामित्व. विषयक सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में (सूत्र १,१,१३७-४०), संख्याविषयक क्षुद्र कबन्ध के द्रव्य प्रमाणानगम में (सूत्र २,५,१४७-५४), क्षेत्रविषयक इसी क्षुद्र कबन्ध के क्षेत्रानुगम में (सत्र २,६,१०१-६), स्पर्शनविषयक स्पर्शनानुगम में (सूत्र २,७,१६३-२१६), कालविषयक कालानगम में (सूत्र २,२,१७७-८२), अन्तरविषयक अन्तरानुगम में (सूत्र २,३,१२५-३०), भावविषयक स्वामित्वानुगम में (सूत्र २,१,६०-६३) व अल्पबहुत्वविषयक अल्पबहुत्वानुगम में । (सूत्र २,११,१७६-८५) १. इसके पूर्व भी उन गाथाओं को 'सत्प्ररूपणा' के अन्तर्गत लेश्यामार्गणा के प्रसंग में (पु० १, पृ० ३८८-६०) उद्धृत किया जा चुका है। २. तत्त्वार्थवार्तिक ४,२२,१०, पृ० १७०-७२ षट्खण्डागम को अन्य मन्त्रों से तुलना / २६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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