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तत्त्वार्थवार्तिक का यह प्रसंग कहीं-कहीं पर तो षट्खण्डागम सूत्रों का छायानुवाद जैसा दिखता है। उदाहरण के रूप में लेश्याविषयक 'स्पर्श' को लिया जा सकता है
__ "लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सिणं असंजदभंगो ।' तेउलेस्सिण सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अट्ठ चोद्दस भागा वा देसूणा । समग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अटूचोइस भागा वा देसूणा । उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । दिवड्ढचोद्दस भागा वा।"
-१० ख० सूत्र २,७,१६२-२०१ (पु० ७) इसका त० वा० के उस प्रसंग से मिलान कीजिये
"कृष्ण-नील-कापोतलेश्यः स्वस्थान-समुद्धातोपपादैः सर्वलोकः स्पृष्टः । तेजोलेश्यः स्वस्थानेन लोकस्यासंख्येयभागः, अष्टो चतुर्दशभागा वा देशोनाः । समुद्घातेन लोकस्यासंख्येय भागः अष्टौ नव (?) चतुर्दशभागा वा देशोनाः। उपपादेन लोकस्यासंख्येयभागः अध्यर्ध-चतुर्दश भागा वा देशोनाः।"
_..---- त० वा० ४,२२,१०, पृ० १७२ इस प्रकार १० ख० और त० वा० में इस प्रसंग की बहुत कुछ समानता देखी जाती है। विशेष इतना है कि ष० ख० में जहाँ उसकी प्ररूपणा आगमपद्धति के अनुसार विभिन्न अनुयोगद्वारों में पृथक्-पृथक् हुई है वहाँ त० वा० में वह 'पीत-पद्म-शुक्लेश्या द्वि-त्रि-शेषेष' इस सूत्र (४-२२) की व्याख्या में पूर्वोक्त निर्देश-वर्णादि १६ अनुयोगद्वारों के आश्रय से एक ही स्थान में कर दी गई है।
सिद्धान्तग्रन्थों के मर्मज्ञ आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने भी लेश्याविषयक निरूपण उसी प्रकार से गो० जीवकाण्ड में किया है। उसका आधार षट्खण्डागम और कदाचित् तत्त्वार्थवार्तिक का वह प्रसंग भी रहा हो । १३. षट्खण्डागम (धवला) और गोम्मटसार
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (विक्रम की ११ वीं शती) विरचित गोम्मटसार एक सैद्धान्तिक ग्रन्थ है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त के पारगामी रहे हैं । प्रस्तुत षट्खण्डागम में जिन प्रतिपाद्य विषयों का विवेचन आगम पद्धति के अनुसार बहुत विस्तार से किया गया है प्रायः उन सभी विषयों का विवेचन गोम्मटसार में अतिशय कुशलता के साथ व्यवस्थित रूप में संक्षेप से किया है। प्रस्तुत षट्खण्डागम आ० नेमिचन्द्र के समक्ष रहा है व उन्होंने उसका गम्भीर अध्ययन करके सिद्धान्तविषयक अगाध पाण्डित्य को प्राप्त किया था। उन्होंने स्वयं यह कहा है कि जिस प्रकार चक्रवर्ती ने चक्ररत्न के द्वारा बिना किसी विघ्न-बाधा के छह खण्डों में विभक्त समस्त भरतक्षेत्र को सिद्ध किया था उसी प्रकार मैंने अपने बुद्धिरूप चक्र के द्वारा षटखण्ड को-छह खण्डों में विभक्त षट्खण्डागम परमागम को-समीचीनतया सिद्ध किया है-उसमें मैं पारंगत हुआ हूँ। षट्खण्डागम के अन्तर्गत जीवस्थानादि रूप छह खण्डों
१. इसके लिए ष० ख०
र ष० ख० सूत्र २,७,१७७ और २,७,१३८-३६ द्रष्टव्य हैं। २. १० ख० सूत्र २,७,१,७७ व २, ७, १३८-३६ दृष्टव्य हैं। ३. जीवकाण्ड गा० ४८८-५५५ ४. जह चक्केण य चक्की छक्खंडं साहियं अविग्घेण ।
तह मइ-चक्केण मया छक्खंडं साड़ियं सम्मं ।।-गो० क० ३६७
३../ बनण्डागम-परिशीलन
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