________________
कर्मकाण्ड में उक्त मतभेद के अनुसार मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में उदयव्युच्छित्ति की भिन्नता को दिखलाकर भी वह किनके उपदेशानुसार है, इसे स्पष्ट नहीं किया गया है।'
२. धवला में पूर्वोक्त २३ प्रश्नों में क्या बन्ध सप्रत्यय (सकारण) होता है या अप्रत्यय' ये दो (१०-११) प्रश्न भी रहे हैं। इनके स्पष्टीकरण में वहाँ धवलाकार ने विस्तार से बन्धप्रत्ययों की प्ररूपणा की है।
वहां सामान्य से मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग इन चार मूल प्रत्ययों का तथा ५ मिथ्यात्व, १२ असंयम, २५ कषाय और १५ योग इन ५७ उत्तर प्रत्ययों का पृथक्-पृथक् रूप में विचार किया गया है। पंचसंग्रह के 'शतक' प्रकरण ४ में इन प्रत्ययों का निर्देश इस प्रकार किया गया है
मिच्छासंजम हुंति हुकसाय-जोगा य बंधहेऊ ते।
पंच बुवालस भेया कमेण पणुवीस पण्णरसं ॥४-७७।। धवला में आगे उन ५७ प्रत्ययों में से जघन्य व उत्कृष्टरूप में कितने प्रत्यय किस गुणस्थान में सम्भव हैं, इसे स्पष्ट किया गया है।
इस प्रसंग में धवला में 'एत्थ उवसंहारगाहाओ' ऐसी सूचना करते हुए जिन तीन गाथाओं को उद्धृत किया गया है उनमें दो गाथाओं द्वारा गुणस्थान क्रम से मूलप्रत्ययों का और तीसरी गाथा द्वारा उत्तरप्रत्ययों का निर्देश है । वह तीसरी गाथा इस प्रकार है
पणवण्णा इर वण्णा तिवाल छादाल सत्ततीसा य ।
चउवीस दुवावीसा सोलस एऊण जाव णव सत्ता ।।४-५०।। यही गाथा कुछ ही शब्द परिवर्तन के साथ पंचसंग्रह में भी इस प्रकार प्रयुक्त हुई है
पणवण्णा पण्णासा तेयाल छयाल सत्ततीसा य।
घउवीस दु वावीसा सोलस एकण जाव णव सत्ता ॥४-८०॥ इन प्रत्ययों का स्पष्टीकरण कर्मकाण्ड में दो (७८६-६०) गाथाओं द्वारा किया गया है ।
धवला में उन ५७ प्रत्ययों में जघन्य व उत्कृष्ट रूप से मिथ्यादृष्टि आदि तेरह गुणस्थानों में वे जहाँ जितने सम्भव हैं उन्हें यथाक्रम से स्पष्ट करते हुए अन्त में 'एत्थ उवसंहारगाहा' ऐसी सूचना करते हुए यह गाथा उद्धृत की गई है--
बस अट्ठारस बसयं सत्तरह णव सोलसं च वोणं तु । अटु य चोद्दस पणयं सत्त तिए तु ति दु एयमेयं च ॥
१. क० का० गाथा २६५ (पूर्व गाथा २६३-६४ भी द्रष्टव्य है) २. धवला पु० ८,१६-२८ ३. वही, १६-२४ ४. वही, २४-२८ ५. वही, २४ ६. यह गाथा कर्मकाण्ड (७८६) में भी उपलब्ध होती है (च० चरण भिन्न है) । ७. धवला पु० ८, पृ० २८ ८. यह गाथा पंचसंग्रह (४-१०१) और कर्मकाण्ड (७६२) में भी उपलब्ध होती है। २६६ / षट्झण्डागम-परिशीलन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org