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________________ दोनों ग्रन्थों में निर्दिष्ट वे कारण संख्या में सोलह ही हैं। त० सू० में यदि उनमें क्षणलवप्रतिबोधनता का उल्लेख नहीं किया गया है तो ष० ख० में प्राचार्यभक्ति का उल्लेख नहीं है । तत्त्वार्थसूत्र में अनिर्दिष्ट उस क्षण-लवप्रतिबोधनता का अन्तर्भाव अभीक्ष्ण-अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगयुक्ता में सम्भव है। इसी प्रकार ष० ख० में अनिर्दिष्ट आचार्यभक्ति का अन्तर्भाव बहुश्रुतभक्ति में सम्भव है। तीर्थकर प्रकृति के बन्धक वे सोलह कारण पृथक्-पृथक् उस तीर्थंकर प्रकृति के बन्धक हैं या समस्त रूप में, इसे स्पष्ट करते हुए सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है कि समीचीनतया भाव्यमान वे सोलह कारण व्यस्त और समस्त भी तीर्थंकर नाम कर्म के प्रास्रव के कारण हैं।' प० ख० में प्रसंगप्राप्त सूत्र की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने उन सोलह कारणों में से पृथक-पृथक प्रत्येक में शेष पन्द्रह कारणों का अन्तर्भाव सिद्ध किया है । इस प्रकार से उन्होंने शेष पन्द्रह कारणों से गर्भित प्रत्येक को पृथक्-पृथक् उस तीर्थंकर प्रकृति का बन्धक सूचित किया है । अन्त में 'अथवा' कहकर उन्होंने विकल्प के रूप में यह भी कहा है कि सम्यग्दर्शन के होने पर शेष कारणों में से एक-दो आदि कारणों के संयोग से उस तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है, यह कहना चाहिए। इस प्रकार तीर्थंकर प्रकृति के बन्धक उन कारणों के विषय में प्रायः दोनों ग्रन्थों का अभिप्राय समान रहा है। २४. तत्त्वार्थसूत्र में आगे अवसरप्राप्त बन्ध तत्त्व का विचार करते हुए सर्वप्रथम वहाँ बन्ध के इन पाँच कारणों का निर्देश किया गया है--मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । पश्चात् बन्ध के स्वरूप का निर्देश करते हुए उसके इन चार भेदों का उल्लेख किया गया है-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्ध । आगे उनमें प्रकृतिबन्ध को ज्ञानावरणादि के भेद से आठ प्रकार बतलाते हुए उनमें प्रत्येक के भेदों की संख्या का निर्देश यथा क्रम से इस प्रकार किया है-पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, ब्यालीस, दो और पाँच । अनन्तर निर्दिष्ट संख्या के अनुसार यथाक्रम से ज्ञानावरणादि के उन भेदों का नामनिर्देश भी है। १० ख० में जीवस्थान से सम्बद्ध नौ चूलिकाओं में जो प्रथम प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका है उसमें सर्वप्रथम पृथक्-पृथक् ज्ञानावरण आदि उन आठ मूल प्रकृतियों के और तत्पश्चात् यथाक्रम से उनकी उत्तरप्रकृतियों के नामों का निर्देश किया गया है। आगे वहाँ पाँचवें वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में भी लगभग उसी प्रकार से उन मूल और उत्तर प्रकृतियों का नामनिर्देशपूर्वक उल्लेख पुनः किया गया है । यहाँ विशेषता केवल यह रही है कि प्राभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय आदि के उत्तरोत्तर भेदों का भी उल्लेख हुआ है। इसके अतिरिक्त प्रसंग पाकर वहाँ अवधिज्ञान और मनःपयर्यज्ञान के भेदों व उनके विषय को भी स्पष्ट किया गया है । १. बारहंगधारया बहुसुदा णाम ।-धवला पु० ८, पृ० ८६ २. स० सि. ६-२४ ३. धवला पु० ८, पृ०७६-६१ ४. त० सूत्र ८, १-१३ ५. षट्खण्डागम पु० ६, सूत्र १, ६-१, ३-२८ व ४५-४६ ६. सूत्र ५,५, १६-१५४ (पु० १३) षटखण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना | १७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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