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दोनों ग्रन्थगत उन कर्मप्रकृतियों के भेदों में प्रायः शब्दशः नानता है । नामकमं के भेदो का निर्देश करते हुए तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ गति-जाति आदि पिण्डप्रकृतियों के साथ ही अपिण्ड प्रकृतियों और उनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियों का भी निर्देश कर दिया गया है वहाँ षट्खण्डागम में ब्यालीस पिण्डप्रकृतियों का निर्देश करके आगे यथाक्रम से पृथक्-पृथक् सूत्रों द्वारा गतिजाति आदि पिण्डप्र कृतियों के उत्तरभेदों को भी प्रकट कर दिया गया है ।'
२५. तत्त्वार्थसूत्र में आगे यहीं पर स्थितिबन्ध के प्रसंग में ज्ञानावरणादि की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति को प्रकट किया गया है । "
'मूल प्रकृतियों षट्खण्डागम में पूर्वोक्त नौ चूलिकाओं में छठी उत्कृष्ट स्थिति और सातवीं जघन्यस्थिति चूलिका है। उनमें यथाक्रम से मूल और उत्तर सभी कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थितियों की प्ररूपणा की गई है ।
तत्त्वार्थ सूत्र की अपेक्षा षट्खण्डागम में इतनी विशेषता रही है कि वहाँ उत्तर - प्रकृतियों की भी उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति की प्ररूपणा की गई है। साथ ही अपनी अपनी स्थिति के अनुसार यथासम्भव उनके आबाधा काल और निषेकरचना - क्रम को भी प्रकट किया गया है । 3
२६. तत्त्वार्थसूत्र में क्रमप्राप्त संवर और निर्जरा इन दो तत्त्वों का व्याख्यान करते हुए तप के आश्रय से होनेवाली कर्मनिर्जरा के प्रसंग में जिन सम्यग्दृष्टि व श्रावक आदि के उत्तरोतर क्रम से असंख्यात गुणी निर्जरा होती है उनका उल्लेख किया गया है। *
ष० ख० में वेदना खण्ड के अन्तर्गत दूसरे वेदना - अनुयोगद्वार में जो १६ अनुयोगद्वार हैं उनमें सातवाँ वेदनाभावविधान है । उसकी प्रथम चूलिका के प्रारम्भ में दो गाथासूत्रों द्वारा उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित क्रम से होनेवाली उस निर्जरा की प्ररूपणा की गई है।
दोनों ग्रन्थों में प्ररूपित निर्जरा का वह क्रम समान रहा है तथा उसके आश्रयभूत सम्यग्दृष्टि व श्रावक आदि भी समान रूप में वे ही हैं । विशेष इतना है कि उस निर्जरा के अन्तिम स्थानभूत 'जिन' का उल्लेख यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र में और ष० ख० के गाथासूत्र में सामान्य से ही किया है, फिर भी ष० ख० में आगे जो उन दो गाथासूत्रों का गद्यात्मक सूत्रों में स्पष्टीकरण है उसमें 'जिन' के अधःप्रवृत्तकेवली संयत और योगनिरोधकेवली संयत ये दो भेद किये हैं । इस प्रकार वहाँ गुण श्रेणिनिर्जरा के ग्यारह स्थान हो गये हैं । "
१. त० सूत्र ८-११ व षट्खण्डागम सूत्र १, ६ १, २८ ४४ ( पु० ६) तथा ५, ५, ११६-५० ( पु० १३) ।
२. तत्त्वार्थसूत्र ८, १४-३०
३. छठी चूलिका पृ० १४५-७६, सातवीं पृ० १८०-२०२ (पु० ६) ।
४. तत्त्वार्थसूत्र - ४५
५. पु० १२, पृ० ७८
६. पु० १२, सूत्र ४, २, ७, १८४ ८७
७. ये दोनों गाथासूत्र शिवशर्मसूरि विरचित कर्मप्रकृति में भी उपलब्ध होते हैं (उदय ८- ९ ) । वहाँ जिणे यणियमा भवे असंखेज्जा' के स्थान में 'जिणे य दुविहे असंखगुणसेढी' पाठभेद है । टीकाकर मलयगिरि सूरि ने 'जिणे य दुविहे' से सयोगी और अयोग जिनो को ग्रहण किया है ।
१८० / षट्खण्डागम-परिशीलन
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