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तत्त्वार्थसूत्र व उसकी व्याख्यास्वरूप सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में भी इन दो भेदों का उल्लेख नहीं है। । दूसरी विशेषता यह भी है कि षट्खण्डागम के उन दो गाथासूत्रों में दूसरे गाथासूत्र के उत्तरार्ध में उस निर्जरा के उत्तरोत्तर असंख्यातगणित काल का भी विपरीत क्रम से निर्देश किया गया है । तत्त्वार्थसूत्र में यह नहीं है। उपसंहार
जैसा कि ऊपर के विवेचन से स्पष्ट हो चुका है, षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र दोनों महत्त्वपूर्ण सूत्रग्रन्थ हैं तथा उनमें प्ररूपित अनेक विषयों में परस्पर समानता भी देखी जाती है। फिर भी दोनों की रचनापद्धति भिन्न है व उनकी अपनी-अपनी कुछ विशेषताएँ भी हैं । यथा--
(१) षटखण्डागम जहाँ गद्यात्मक प्राकृत सत्रों में रचा गया है वहां तत्त्वार्थसत्र संस्कृत गद्य-सूत्रों में रचा गया है व सम्भवतः जैन सम्प्रदाय में वह संस्कृत में रची गई आद्य कृति है।
(२) षट्खण्डागम आगम पद्धति के अनुसार प्रायः प्रश्नोत्तरशैली में रचा गया है, इसलिए उसमें पुनरावृत्ति भी बहुत हुई है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में उस प्रश्नोत्तर शैली को नहीं अपनाया गया, वहां विवक्षित विषय की प्ररूपणा अत्यन्त संक्षेप में की गई है, इससे ग्रन्थ प्रमाण में वह अल्प है, फिर भी आवश्यक तत्त्वों का विवेचन उसमें सवांगपूर्ण हुआ है।
(३) षट्खण्डागम में पारिभाषिक शब्दों का लक्षणनिर्देशपूर्वक स्पष्टीकरण नहीं किया गया। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के संक्षिप्त होने पर भी उसमें कहीं-कहीं पारिभाषिक शब्दों का लक्षण निर्देशपूर्वक आवश्यकतानुसार स्पष्टीकरण भी किया गया है।
(४) षट्खण्डागम की रचना श्रुतविच्छेद के भय से हुई है, इसीलिए उसमें सैद्धान्तिक विषयों की प्ररूपणा की गई है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र की रचना मोक्ष को लक्ष्य में रखकर की गई है, अत: उसमें उन्हीं तत्त्वों का विवेचन है जो मोक्ष की प्राप्ति में प्रयोजनीभूत रहे हैं।
तत्त्वार्थसूत्र के तीसरे और चौथे अध्याय में जो भौगोलिक विवेचन किया गया है वह भी प्रयोजनीभूत व आवश्यक रहा है। कारण यह कि कौन जीव मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं और कौन जीव उसे नहीं प्राप्त कर सकते हैं तथा कहाँ से उसकी प्राप्ति सम्भव है और कहाँ से वह सम्भव नहीं है; इत्यादि का परिज्ञान करा देना भी लक्ष्य की पूर्ति के लिए आवश्यक रहा है । संस्थानविचय धर्मध्यान में इसी सबका चिन्तन किया जाता है।
(५) तत्त्वार्थसूत्र में चचित ऐसा भी बहुत कुछ विषय है, जिसकी प्ररूपणा षट्खण्डागम में उपलब्ध नहीं होती। जैसे-तीसरे-चौथे अध्याय का भौगोलिक वर्णन, पाँचवें अध्याय में प्ररूपित अजीव तत्त्व, सातवें अध्याय में वर्णित व्रत व उनके अतिचार आदि, नौवें अध्याय में प्ररूपित गुप्ति-समिति आदि तथा दसवें अध्याय में प्ररूपित मोक्ष व उसकी विशेषता।
इस स्थिति के होते हुए भी सम्भावना तो यही की जाती है कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता आ० उमास्वाति के समक्ष प्रस्तुत षट्खण्डागम रहा है व उन्होंने उसका उपयोग अपनो पद्धति से तत्त्वार्थसूत्र की रचना में भी किया है, पर निश्चित नहीं कहा जा सकता । हाँ, तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्याता आ० पूज्यपाद और भट्टाकलंक देव के समक्ष वह षट्खण्डागम रहा है व उन्होंने
षट्खण्डागम की अन्य प्रन्थ से तुलना / १८१
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