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उसका भरपूर उपयोग भी किया है, यह निश्चित कहा जा सकला है । यह आगे सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक के साथ तलनात्मक विचार के प्रसंग से स्पष्ट हो जाएगा।
तत्त्वार्थसूत्र में प्ररूपित जिन अन्य विषयों का ऊपर निर्देश किया गया है उनकी प्ररूपणा के आधार कदाचित् ये ग्रन्थ हो सकते हैं
(१) तत्त्वार्थसूत्र के तीसरे-चौथे अध्याय में जो लोक के विभागों की प्ररूपणा की गई है उसका आधार आ० सर्वनन्दी विरचित लोकविभाग या उसी प्रकार का अन्य कोई प्राचीन भौगोलिक ग्रन्थ हो सकता है। तिलोयपण्णत्ती में ऐसे कितने ही प्राचीन ग्रन्थों का उल्लेख है, जो वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं।'
(२) द्रव्यविषयक प्ररूपणा का आधार कदाचित् आ० कुन्दकुन्द विरचित पंचास्तिकाय सम्भव है।
(४) व्रतनियमादि की प्ररूपणा का आधार मूलाचार का पंचाचाराधिकार' तथा योनि, आयु, लेश्या व बन्ध आदि कुछ अन्य विषयों की प्ररूपणा का आधार इसी मूलाचार का पर्याप्ति अधिकार भी सम्भव है।
तुलनात्मक दृष्टि से क्रमशः तत्त्वार्थसूत्र और मूलाचार में प्ररूपित इन बन्ध व बन्धकारण आदि को देखा जा सकता है
मिथ्यादर्शनाविरति प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतवः । सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः। प्रकृति-स्थित्यनुभव-प्रदेशास्तद्विधयः। आधो ज्ञान-दर्शनावरण-वेदनीयमोहनीयायुर्नाम-गोत्रान्तरायाः । पञ्च-नव-द्वयष्टाविंशति-चतुर्द्विचत्वारिंशद्-द्वि-पञ्चभेदा यथाक्रमम् ।
-तत्त्वार्थसूत्र ८,१-५ __ कर्मबन्धविषयक यह प्ररूपणा मूलाचार की इन गाथाओं में उसी रूप में व उसी क्रम से इस प्रकार उपलब्ध होती है
मिच्छादसण-अविरदि-कसाय-जोगा हवंति बंधस्स । आऊसज्झवसाणं हेदव्वो ते दु णायव्वा ।। जीवो कसायजुत्तो जोगादो कम्मणो दु जे जोग्गा। गेण्हइ पोग्ग लदव्वे बंधो सो होदि णायव्वो ।। पयडि-ट्रिदि-अणभागप्पदेसबंधो य चद् विहो होइ। दविहो य पडिबंधो मलो तह उत्तरो चेव ॥
१. ति० प० २, परिशिष्ट, पृ० ६६५ पर 'ग्रन्थनामोल्लेख'। २. यहाँ 'चरणाचार' के प्रसंग में व्रत-समिति-गुप्ति आदि की प्ररूपणा की गई है । यहीं पर
आगे पाँच व्रतों की जिन ५-५ भावनाओं का निरूपण किया गया है (५,१४०-४४) उनका उसी प्रकार से निरूपण तत्त्वार्थसूत्र (७, ३-८) में भी किया गया है ।
आ० कुन्दकुन्द ने चारित्र प्राभूत में संयमचरण के दो भेद निदिष्ट किये हैं-सागार संयमचरण और निरागार संयमचरण । सागार संयमचरण में उन्होंने ग्यारह प्रतिमाओं के साथ श्रावक के बारह व्रतों का निर्देश किया है (चा० प्रा० २१-२७) । तत्त्वार्थसूत्र में जो श्रावकाचार का विवेचन है वह यद्यपि चरित्रप्रामृत से कुछ भिन्न है, फिर भी आ० उमास्वाति के समक्ष वह रह सकता है।
१८२/ षट्खण्डागम-परिशीलन
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