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________________ यह अदत्तादान (स्त्येय) में गर्भित होता है । सूत्रोक्त इन प्रत्ययों की भिन्नता को प्रकट करने के लिए धवलाकार ने ऐसे प्रत्ययों के स्वरूप का उल्लेख पृथक्-पृथक् किया है । यथा सामान्य से मिथ्यात्व, अविरति (असंयम ), कषाय और योग ये चार बन्ध के कारण माने गये हैं ।' तदनुसार धवलाकार ने ष० ख० में निर्दिष्ट उन सब कारणों का अन्तर्भाव इन्हीं चार में प्रकट किया है । प्राणातिपात आदि पाँच पापों और रात्रिभोजन को उन्होंने असंयम प्रत्यय कहा है । आगे उन्होंने क्रोध मान को आदि लेकर मोष पर्यन्त सब कारणों को कषाय प्रत्यय, मिथ्याज्ञान और मिथ्यादर्शन को मिथ्यात्व प्रत्यय और प्रयोग को योग प्रत्यय निर्दिष्ट किया है । " यहाँ धवला में यह शंका की गई है कि 'प्रमाद' प्रत्यय का उल्लेख यहाँ क्यों नहीं किया। इसके उत्तर 'कहा गया है कि इन प्रत्ययों से बहिर्भूत प्रमाद प्रत्यय नहीं पाया जाता । २३. तत्त्वार्थसूत्र में इसी प्रसंग में तीर्थंकर प्रकृति के बन्धक सोलह कारणों का उल्लेख विशेष रूप से किया गया है। * ० ख० के तीसरे खण्ड बन्धस्वामित्व विचय में बन्धक - अबन्धक जीवों की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध के उन सोलह करणों का निर्देश किया गया है । " दोनों ग्रन्थों में जो उन दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारणों का निर्देश किया गया है वह प्रायः शब्दश: समान है । यदि कहीं कुछ थोड़ा शब्दभेद भी दिखता है तो भी अभिप्राय में समानता है । ष० ख० में निर्दिष्ट उन सोलह कारणों के अन्तर्गत क्षण-लवप्रतिबोधनता और अभीक्ष्णअभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता इन दो कारणों में आपाततः समानता दिखती है। पर उनमें विशेषता है, जिसे धवलाकार ने इस प्रकार स्पष्ट किया है सम्यग्दर्शन, ज्ञान, व्रत और शील इन गुणों को उज्ज्वल करना, कलंक को धोना अथवा दग्ध करना इसका नाम प्रतिबोधनता है । इसमें प्रतिसमय ( निरन्तर ) उद्यत रहना, इसका नाम श्रण- लव तिबोधनता है । अभीक्ष्ण-अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगयुक्तत्ता में ज्ञानोपयोग से भावश्रुत और द्रव्यश्रुत अभिप्रेत है, उसमें बार-बार ( निरन्तर ) उद्य ुक्त रहना, यह अभीक्ष्ण-अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता का लक्षण है । १. धवला पु० ८, पृ० १६-२८ २. एवमसंजमपच्चओ परूविदो । संपहि कसायपच्चयपरूवणट्टमुत्तरसुत्त भणदि । धवला पु० १२, पृ० २८३, क्रोध-माण - माया-लोभ-राग-दोस- मोह-पेम्म णिदाण-अब्भक्खाणकलह - पेसुण्ण-रदि-अरदि-उवहिणियदि माण- माय-मोसेहि कसायपच्चओ परुविदो । मिच्छणाण-मिच्छदंसणेहि मिच्छत्तपच्चओ णिद्दिट्ठो । पओगेण जोगपच्चत्रो परुविदो | - ( पु० १२, पृ० २८६ ) उल्लेख किया गया है— .... ३. त०सू० में उन चार कारणों के साथ प्रमाद का भी पृथक् से मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमाद - कषाय- योगा बन्धहेतवः । -- (त० सू० ८- १ ) ४. त०सू० ६-२४ ५. ष० ख० सूत्र ३, ३६-४१ (पु० ८) १७८ / घटखचदागम-परि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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