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अवस्थित विपुलाल पर महावीर ने भव्यजनों के लिए अर्थ कहा - भावश्रुत के रूप में उपदेश किया', ऐसा अभिप्राय प्रकट किया गया है । पश्चात् ऋषिगिरि, वैभार, विपुलाचल, छिन्न और पाण्डु इन पाँच पर्वतों की स्थिति भी दिखलायी गयी है ।
इसी प्रकार कालप्ररूपणा के प्रसंग में भी चार गाथाओं को उद्धृत कर उनके आश्रय से नक्षत्र आदि की कुछ विशेषता को दिखलाते हुए श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन पूर्वाह्न में तीर्थ की उत्पत्ति हुई, यह अभिप्राय प्रकट किया गया है । भावकर्ता के रूप में महावीर की प्ररूपणा करते हुए उन्हें ज्ञानावरणीय आदि के क्षय से प्राप्त हुईं अनन्तज्ञानादि रूप नौ केवललब्धियों स परिणत कहा गया है । इस प्रसंग में भी तीन गाथाओं को उद्धृत किया गया है । " ग्रन्थकर्ता के प्रसंग में कहा गया है कि केवलज्ञानी उन महावीर द्वारा उपदिष्ट अर्थ का अवधारण उसी क्षेत्र एवं उसी काल में इन्द्रभूति ने किया । गौतमगोत्रीय वह इन्द्रभूति ब्राह्मण समस्त दुःश्रुतियों (चारों वेद आदि) में पारंगत था । उसे जब जीव अजीव के विषय में सन्देह हुआ तो वह वर्धमान जिनेन्द्र के पादमूल में आया । उसी समय वह विशिष्ट क्षयोपशम के वश बीजबुद्धि आदि चार निर्मल बुद्धि - ऋद्धियों से सम्पन्न हो गया । यहाँ 'उक्तं च' कहकर यह गाथा उद्धृत की गयी है, जिसके द्वारा उस इन्द्रभूति को गोत्र से गौतम, चारों वेदों व षडंग में विशारद, शीलवान् और ब्राह्मणश्रेष्ठ कहा गया है
गोतेण गोदमो विप्पो चाउब्वेय-सरंगवि । णामेण इंदभूदित्ति सीलवं बम्हणुत्तमो ॥
..भावश्रुतपर्याय से परिणत उस इन्द्रभूति ने बारह अंग और चौदह पूर्व रूप ग्रन्थों की रचना क्रम से एक ही मुहूर्त में कर दी । इसलिए भावश्रुत और अर्थपदों के कर्ता तीर्थंकर हैं तथा तीर्थंकर के आश्रय से गौतम श्रुतपर्याय से परिणत हुए, अतः गौतमद्रव्य श्रुत के कर्ता हैं । इस प्रकार गौतम गणधर द्वारा ग्रन्थरचना हुई।
षट्खण्डागम की रचना कैसे हुई ?
इस प्रकार कर्ता की प्ररूपण करके आगे धवला में उस श्रुत का प्रवाह किस प्रकार से प्रवाहित हुआ, इसकी चर्चा करते हुए कहा गया है कि उन गौतम गणधर ने दोनों प्रकार के • श्रुतज्ञान को लोहार्य ( सुधर्म ) के लिए और उन लोहार्य ने उसे जम्बूस्वामी के लिए संचारित किया । इस प्रकार परिपाटी क्रम से ये तीनों ही समस्त श्रुत के धारक कहे गये हैं । किन्तु परिपाटी के बिना समस्त श्रुत के धारक संख्यात हजार हुए हैं। गौतमदेव, लोहार्य और जम्बूस्वामी ये तीनों सात प्रकार की ऋद्धि से सम्पन्न होकर समस्त श्रुत के पारंगत हुए और अन्त में केवलज्ञान प्राप्त करके मुक्त हुए हैं।
पश्चात् विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये परिपाटीक्रम से चौदह पूर्वी के धारक श्रुतकेवली हुए । तत्पश्चात् विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धार्थदेव, धृतिषेण, विजयाचार्य, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह आचार्य पुरुषपरम्परा के क्रम से ग्यारह अंगों व उत्पादादि दस पूर्वी के धारक हुए। शेष चार पूर्वो के वे एकदेश के
१. धवला पु० १, पृ० ६०-६४ २. वही, पु० १, पृ० ६४-६५
३६८ / बट्खण्डागम-परिशीलन
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