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________________ योगद्वारों की ही प्ररूपणा की गई है। शेष अठारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा धवला में स्वयं वीरसेनाचार्य ने की है। उन छह अंनुयोगद्वारों में भी कृति और वेदना इन दो अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा वेदना'खण्ड में, तथा स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्धन इन चार अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा 'वर्गणा' खण्ड में की गयी है।' - विशेष इतना है कि उक्त छह अनुयोगद्वारों में छठा 'बन्धन' अनुयोगद्वार बन्ध, बन्धनीय, बन्धक और बन्धविधान के भेद से चार प्रकार का है। उनमें बन्ध और बन्धनीय (वर्गणा) इन दो की प्ररूपणा पूर्वोक्त स्पर्शादि के साथ वर्गणा खण्ड (पु० १३ व १४) में की गयी है, तथा बन्धक की प्ररूपणा दूसरे खण्ड 'क्षुद्रकबन्ध' (खुद्दाबंध) में की गयी है। अब जो शेष बन्धविधान रह जाता है उसके विषय में धवलाकार ने 'वर्गणाखण्ड के अन्त में यह संकेत कर दिया है कि धावधान प्रकृात, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध के भेद से चार प्रकार का है। उन चारों की प्ररूपणा भूतबलि भट्टारक ने 'महाबन्ध' (छठा खण्ड) में विस्तार से की है इसलिए उसे हम यहां नहीं लिखते हैं। इससे समस्त महाबन्ध की यहाँ प्ररूपणा करने पर बन्धविधान समाप्त होता है। वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में (पू०है) णमोजिणाणं आदि ४४ सत्रों के द्वारा जो विस्तत मंगल किया गया है, उसके विषय में धवला में यह शंका उठाई गयी है कि आगे कहे जाने वाले तीन खण्डों में यह किस खण्ड का मंगल है ? इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि वह उन तीनों खण्डों का मंगल है। इसका कारण यह है कि आगे वर्गणा और महाबन्ध खण्डों के प्रारम्भ में कोई मंगल नहीं किया गया और मंगल के बिना भूतबलि भट्टारक ग्रन्थ को प्रारम्भ करते नहीं हैं, क्योंकि वैसा करने से उनके अनाचार्यत्व का प्रसंग प्राप्त होता है।' धवलाकार के इस शंका-समाधान से महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के, जिसका दूसरा नाम घेदनाकृत्स्नप्राभूत भी है, उपसंहार स्वरूप प्रस्तुत परमागम के अन्तर्गत वेदना, वर्गणा और महाबन्ध इन तीन खण्डों की सूचना मिलती है। फिर भी क्षद्रकबन्ध और बन्धस्वामित्वविचय इन दो खण्डों का नाम ज्ञातव्य ही रह जाता है । जीवस्थान का नाम सत्प्ररूपणा में पहले ही निर्दिष्ट किया जा चुका है-जीवाणंट्ठाणवण्णणादो जीवट्ठाणमिदि गोणपदं (पु० १, पृ० ७६)। १. धवला पु० ६ (कृति), पु० १०-१२ (वेदना), पु० १३ (स्पर्शादि ३) व पु० १४ (बन्ध, बन्धक, बन्धनीय) २. जं तं बंधविहाणं तं चउव्विहं--पयडिबंधो, टिदिबंधो, अणुभागबंधो, पदेसबंधो चेदि (सूत्र ७९७) । एदेसि चदुण्हं बंधाणं विहाणं भूदबलिभडारएण महाबंधे सप्पवंचेण लिहिद ति अम्हेहि एत्थ ण लिहिदं । तदो सयले महाबंधे एत्थ परूविदे बंधविहाणं समप्पदि । धवला पु० १४, पृ० ५६४ ३. उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं ? तिण्णं खण्डाणं । कुदो ? वग्गणा महाबंधाणमादीए मंगलाकरणादो । ण च मंगलेण विणा भूदबलिभडारओ गंथस्स पारंभदि, तस्स अणा इरियत्तप्प संगादो।-धवला पु० ६, पृ १०५ ४. वेयणकसिणपाहुडे त्ति वि तस्स विदियं णाममत्थि । वेयणा कम्माणमुदयो, त कसिणं __णिरवसेसं वष्णेदि, अदो वेयण कसिणपाहुडमिदि एदमवि गुणणाममेव । धवला पु० १, पृ० १२४-२५; पीछे पृ० ७४ भी द्रष्टव्य है। २ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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