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________________ शंका --- परिणामों की करण संज्ञा कैसे हुई ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है । साधकतम भाव की विवक्षा से, परिणामों में करणपना पाया जाता है । शंका- मिथ्यादृष्टि आदि जीवों के परिणामों की अधःप्रवृत्त संज्ञा क्यों नहीं की ? समाधान - क्योंकि यह बात इष्ट है अर्थात् मिथ्यादृष्टि आदि के अधस्तन और उपरितन समयवर्ती परिणामों की पायी जानेवाली समानता में अधःप्रवृत्तकरण का व्यवहार स्वीकार किया जाता है । शंका- यह कैसे जाना जाता ? समाधान — क्योंकि अधः प्रवृत्त नाम अन्तदीपक है इसलिए प्रथमोपशमसम्यक्त्व होने के पूर्व तक मिथ्यादृष्टि आदि के पूर्वोत्तरसमयवर्ती परिणामों में जो समानता पायी जाती है। वह उसकी अधःप्रवृत्त संज्ञा का सूचक है । शंज्ञा - प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुख जीव किसका अन्तर करता है ? समाधान- मिथ्यात्व कर्म का अन्तर करता है, क्योंकि यहाँ पर अनादि मिथ्यादृष्टि जीव का अधिकार हैं । अन्यथा पुनः जो तीन भेदरूप दर्शनमोहनीय कर्म है उस सबका अन्तर करता है । शंका- वहाँ पर किस करण के काल में अन्तर करता है ? समाधान - अनिवृत्तिकरण के काल में संख्यात भाग जाकर अन्तर करता है । षट्खण्डागम: पुस्तक- १० शंका-बन्ध के कारण कौन-से हैं ? समाधान - मिथ्यात्व असंयम, कषाय और योग - ये चार बन्ध के कारण हैं और सम्यग्दर्शन, संयम, अकषाय और अयोग मोक्ष के कारण हैं । शंका - जीव ही उत्कृष्ट द्रव्य का स्वामी होता है यह कैसे जाना जाता है ? समाधान -- क्योंकि मिध्यात्व, असंयम, कषाय और योगरूप कर्मों के आस्रव अन्यत्र नहीं पाये जाते; इसीलिए जो जीव-इस प्रकार जीव को विशेष रूप किया है और आगे कहे जानेवाले सब इसके विशेषण हैं । शंका- नारकी मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीव नरक से निकलकर किन-किन गतियों में जाते हैं ? समाधान - तिर्यंच गति में भी और मनुष्य गति में भी । शंका - सम्यग्दृष्टि नारकी नरक से निकलकर किन-किन गतियों में जाते हैं ? समाधान - एक मात्र मनुष्य गति में ही जाते हैं । शंका- नीचे सातवीं पृथ्वी के नारकी जीव किन गतियों में जाते हैं ? समाधान - केवल एक, तियंच गति में ही जाते हैं । उनके शेष तीन आयुओं के बन्ध का अभाव है । शंका- संख्यात वर्ष की आयुवाले मनुष्य व मनुष्यपर्याप्तकों में सम्यक्त्व सहित प्रवेश करनेवाले देव और नारकी जीवों का वहाँ से सासादन- सम्यक्त्व के साथ कैसे निकलना होता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only प्रधान सम्पादकीय / १५ www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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