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(५) सामान्य मतिज्ञान
संज्ञा, स्मृति, मति और चिन्ता । (ष०ख० ५,५,४१) ईहा, अपोह, मीमांसा, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति और प्रज्ञा । (नन्दिसूत्र ६०, गाथा ७७)
दोनों ग्रन्थगत इन शब्दों में कितनी अधिक समानता है, यह इन विशेष शब्दों के देखने से स्पष्ट हो जाता है।
नन्दिसत्रगत सामान्य आभिनिबोधिकज्ञान के पर्याय शब्दों में जो ईहा, अपोह, मीमांसा, मार्गणा और गवेषणा ये पांच शब्द हैं वे ष०ख० में ईहा के समानार्थक शब्दों के अन्तर्गत हैं । नन्दिसूत्रगत ईहा के एकार्थक शब्दों में भी उनमें से मार्गणता, गवेषणता और विमर्श (मीमांसा) ये तीन शब्द हैं ही।
इसके अतिरिक्त प्रतिलिपि करते समय में भी शब्दों में कुछ भेद का हो जाना असम्भव नहीं है। विशेषकर प्राकृत शब्दों के संस्कृत रूपान्तर में भी भेद हो जाया करता है।
दोनों गन्थों में आगे जो श्रुतज्ञान की प्ररूपणा की गई है उसमें कुछ समानता नहीं है । षट्खण्डागम में जहाँ श्रुतज्ञान के प्रसंग में उनके पर्याय व पर्यायसमास आदि बीस भेदों का उल्लेख है वहाँ नन्दिसूत्र में उसके प्रसंग में आचारादि भेदों में विभक्त श्रुत की विस्तार से प्ररूपणा की गई है।
४. षट्खण्डागम में अवधिज्ञानावरणीय के प्रसंग में अवधिज्ञान के भवप्रत्ययिक और गुणप्रत्ययिक ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। आगे इनके स्वामियों का उल्लेख करते हुए वहाँ कहा गया है कि भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान देवों और नारकियों के तथा गणप्रत्ययिक तिर्यंचों और मनुष्यों के होता है । तत्पश्चात् उस अवधिज्ञान को अनेक प्रकार का बतलाते हुए उनमें से कुछ भेदों का निर्देश इस प्रकार किया गया है--देशावधि, परमावधि, सर्वावधि, हीयमान, वर्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिपाति, अप्रतिपाति, एकक्षेत्र और अनेक क्षेत्र ।'
नन्दिसूध में भी अवधिज्ञान के भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनमें भवप्रत्ययिक देवों और नारकियों के तथा क्षायोपशमिक मनुष्यों और पंचेन्द्रिय तियंचों के होता है, यह स्पष्ट किया गया है । आगे वहाँ प्रकारान्तर से यह भी कहा गया हैअथवा गुणप्रत्ययिक अनगार के जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है वह छह प्रकार का होता हैआनुगामिक, अनानुगामिक, वर्धमान, हीयमान, प्रतिपाति और अप्रतिपाति ।
आगे वहाँ उपसंहार करते हए यह भी कहा है कि भवप्रत्ययिक और गणप्रत्ययिक इस दो प्रकार के अवधिज्ञान का वर्णन किया जा चुका है । उसके द्रव्य, क्षेत्र और काल के आश्रय से अनेक भेद हैं।
इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में प्रकृत अवधिज्ञान के भेदों और उनके स्वामियों के निर्देश में
१. ष० ख०, सूत्र ५,५,५१-५६ २. नन्दिसूत्र १३-१५ ३. 'ओही भवपच्चइओ गुणपच्चइओ य वण्णिओ एसो।
तस्स य बहूवियप्पा दव्वे खेत्ते य काले य ।।'-नन्दिसूत्र २६, गा० ५३
२९० / षट्लण्डागम-परिशीलन
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