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________________ प्रस्तावना आगम का महत्त्व मनुष्य पर्याय की प्राप्ति का प्रमुख प्रयोजन संयम को प्राप्त कर कर्मबन्धन से मुक्ति पाना होना चाहिए। इसके लिए जीवादि पदार्थों के विषय में यथार्थ श्रद्धापूर्वक उनका ज्ञान और तदनुरूप आचरण आवश्यक है । पदार्थ विषयक वह ज्ञान आगमाभ्यास के बिना सम्भव नहीं है । यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने आगमविषयक अध्ययन पर विशेष जोर दिया है। वे कहते हैं कि आगमपरिशीलन के बिना पदार्थों के विषय में निश्चय नहीं होता है और जब तक निश्चय नहीं होता तब तक श्रमण एकाग्रचित्त नहीं हो सकता है । एकाग्रचित्त वह तब ही हो सकता है जब उसे आत्म-पर का विवेक हो जाय । कारण यह कि भेदविज्ञान के बिना कर्मों का क्षय करना शक्य नहीं है । इस प्रकार यह सब उस आगमज्ञान पर ही निर्भर है। इसीलिए साधु को आगमचक्षु कहा गया है, जो सर्वथा उचित है। कारण यह है कि चर्मचक्षु से तो प्राणी सीमित स्थूल पदार्थों को ही देख सकता है, सूक्ष्म व देश-कालान्तरित असीमित पदार्थों के देखने में वह असमर्थ ही रहता है। किन्तु आगम के द्वारा परोक्ष रूप में उन सभी पदार्थों का ज्ञान सम्भव है जिन्हें केवलज्ञानी प्रत्यक्ष रूप में जानते देखते हैं । इसलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जिसकी दृष्टि आगमपूर्व नहीं है-आगमज्ञान से सुसंस्कृत नहीं होती है - उसके संयम नहीं होता है, यह सत्रवचन है । और जो संयम से रहित होता है वह श्रमण नहीं हो सकता। अभिप्राय यह कि आगमज्ञान के बिना तत्त्व-श्रद्धापूर्वक ज्ञान, उसके बिना संयम और उस संयम के बिना निर्वाण का प्राप्त करना सम्भव नहीं है।' आगम की यथार्थता यह अवश्य विचारणीय है कि आगम रूप से प्रसिद्ध विविध ग्रन्थों में वह यथार्थ आगम क्या हो सकता है, जिसके आश्रय से मुमुक्षु भव्य जीव उक्त आत्मप्रयोजन को सिद्ध कर सके । आचार्य कुन्दकुन्द के वचनानुमार यथार्थ आगम उसे समझना चाहिए जो वीतराग सर्वज्ञ के द्वारा कहा गया हो तथा पूर्वापरविरोधादि दोषों से रहित हो । इसी अभिप्राय को परीक्षाप्रधानी आचार्य समन्तभद्र ने भी अभिव्यक्त किया है कि जो १. प्रवचनसार ३,३२-३७ २. नियमसार ७-८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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