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कार होने से उसे छोड़कर कर्मनिबन्धन को ही ग्रहण करना चाहिए। ___इस अनुयोगद्वार का प्रयोजन कर्मरूपता को प्राप्त हुए कर्मों के व्यापार को प्रकट करना है। इनमें नोआगमकर्मनिबन्धन दो प्रकार का है-मूलकर्मद्रव्यनिबन्धन और उत्तरकर्मद्रव्यनिबन्धन । इनमें यहाँ प्रथमतः आठ मूल कर्मों के निबन्धन की, और तत्पश्चात् संक्षेप में उत्तर कर्मों के निबन्धन की, प्ररूपणा की गयी है। यथा
ज्ञानावरणकर्म सब द्रव्यों में निबद्ध है, न कि सब पर्यायों में। ज्ञानावरण को जो यहां सब द्रव्यों में निबद्ध होने का कथन है वह केवलज्ञानावरण के आश्रय से किया गया है। कारण यह कि वह तीनों कालविषयक अनन्त पर्यायों से परिपूर्ण छहों द्रव्यों को विषय करनेवाले केवलज्ञान का विरोधी है। साथ ही, सब पर्यायों में जो उसकी निबद्धता का निषेध किया गया है वह शेष चार ज्ञानावरणों की अपेक्षा से किया गया है, क्योंकि उनके द्वारा आवियमाण शेष चार ज्ञानों में सब द्रव्यों के ग्रहण की शक्ति नहीं है।
इस प्रसंग में यह शंका उठी है कि मति और श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति जब मूर्त व अमूर्त सभी द्रव्यों में उपलब्ध होती है तब उनको सब द्रव्यों को विषय करने वाले क्यों नहीं कहते। इसके समाधान में वहां यह कहा गया है कि वे यद्यपि द्रव्यों के तीनों कालविषयक पर्यायों को जानते हैं, पर उन्हें सामान्य से ही जानते हैं, विशेष रूप से उनकी प्रवृत्ति उनके विषय में नहीं है। और यदि विशेष रूप से भी उनकी प्रवृत्ति को उन अनन्त पर्यायों में स्वीकार किया जाता है तो फिर केवलज्ञान से उनकी समानता का प्रसंग प्राप्त होता है । पर वैसा सम्भव नहीं है, अन्यथा पाँच ज्ञानों के उपदेश के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। इससे सिद्ध है कि मति और श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति विशेष रूप से द्रव्यों की अनन्त पर्यायों में सम्भव नहीं है।
(धवला, पु० १५, पृ० १.४) आगे दर्शनावरणीय के निबन्धन की प्ररूपणा के प्रसंग में कहा है कि जिस प्रकार ज्ञानावरणीय सब द्रव्यों में निबद्ध है उसी प्रकार दर्शनावरणीय भी सब द्रव्यों में निबद्ध है।
इस पर शंकाकार ने अपना अभिमत प्रकट करते हुए कहा है कि दर्शनावरणीय आत्मा में ही निबद्ध है, न कि सब द्रव्यों में; क्योंकि यदि ऐसा न माना जाय तो ज्ञान और दर्शन में फिर कछ भेद नहीं रहता है। यदि कहा जाय कि विषय और विषयी के सन्निपात के अनन्तर समय में जो सामान्य ग्रहण होता है, उसका नाम दर्शन है, इस प्रकार ज्ञान से दर्शन की भिन्नता सिद्ध है; तो यह कहना भी ठीक नहीं है। कारण यह कि विषय और विषयी के सन्निपात के अनन्तर जो आद्य ग्रहण होता है, वह तो अवग्रह का लक्षण है जो ज्ञानरूपता को प्राप्त है। इस प्रकार ज्ञानस्वरूप अवग्रह को दर्शन मानने का विरोध है। दूसरे, विशेष के बिना सामान्य का ग्रहण भी सम्भव नहीं है; क्योंकि द्रव्य-क्षेत्रादि की विशेषता के बिना सामान्य का ग्रहण घटित नहीं होता है। आगे शंकाकार ने 'ज्ञान क्या अवस्तु को ग्रहण करता है या वस्तु को' इत्यादि विकल्पों को उठाकर उनकी असम्भावनाएं प्रकट करते हुए अन्त में कहा है कि 'ज्ञानावरण के समान दर्शन सब द्रव्यों में निबद्ध है' यह जो कहा गया है वह घटित नहीं होता है।
इस प्रकार शंकाकार द्वारा उद्भावित दोष का निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है कि बाह्य अर्थ से सम्बद्ध आत्मस्वरूप के संवेदन का नाम दर्शन है। यह आत्मस्वरूप का संवेदन बाह्य अर्थ के सम्बन्ध के बिना सम्भव नहीं है, क्योंकि ज्ञान, सुख और दुःख-इन सब की प्रवृत्ति बाह्य अर्थ के आलम्बनपूर्वक ही देखी जाती है, इसलिए ज्ञानावरण के समान
५३४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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