SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 589
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दर्शनावरण को भी जो सब द्रव्यों में निबद्ध कहा गया है, वह संगत ही है, यह सिद्ध है। इसी प्रकार से आगे वेदनीय-मोहनीय आदि शेष छह मूलप्रकृतियों के निबन्धनविषयक प्ररूपणा की गयी है (धवला, पु० १५, पृ० ६-७) । उत्तरप्रकृतियों के प्रसंग में मतिज्ञानावरणीयादि चार ज्ञानावरणीय प्रतियों को द्रव्यपर्यायों के एक देश में निबद्ध कहा गया है। इसे स्पष्ट करते हुए वहाँ कहा गया है कि अवधिज्ञान द्रव्य से मूर्त द्रव्यों को ही जानता है; अमूर्त धर्म, अधर्म, काल, आकाश और सिद्धजीव इन द्रव्यों को वह नहीं जानता; क्योंकि अवधिज्ञान का निबन्ध रूपी द्रव्यों में है, ऐसा सूत्र में कहा गया है।' क्षेत्र की अपेक्षा वह घनलोक के भीतर स्थित मूर्त द्रव्यो को ही जानता है, उसके बाहर नहीं। काल की अपेक्षा वह असंख्यात वर्षों के भीतर जो अतीत व अनागत है उसे ही जानता है, उसके बहिर्वर्ती अतीत-अनागत अर्थ को नहीं। भाव की अपेक्षा वह अतीत, अनागत और वर्तमान कालविषयक असंख्यात लोकमात्र द्रव्य-पर्यायों को जानता है। इसलिए अवधिज्ञान सब द्रव्य-पर्यायों को विषय नहीं करता है। इसी कारण अवधिज्ञानावरणीय सब द्रव्यों के एक देश में निबद्ध है, ऐसा कहा गया है। __मनःपर्ययज्ञान भी चंकि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा एक देश को ही विपय करनेवाला है, इसीलिए मनःपर्ययज्ञानावरणीय भी देश में निबद्ध हैं। इसी प्रकार मति और श्रुत ज्ञानावरणीयों की देशनिबद्धता की प्ररूपणा करनी चाहिए। केवलज्ञानावरणीय सब द्रव्यों में निबद्ध है, क्योंकि वह समस्त द्रव्यों को विपय करनेवाले केवलज्ञान की प्रतिबन्धक है (पु० १५, पृ० ७-८)। आगे दर्शनावरणीय आदि अन्य मूलप्रकृतियों की भी कुछ उत्तरप्रकृतियों के निबन्धनविषयक प्ररूपणा की गयी है। नामकर्म के प्रसंग में उसे क्षेत्रजीवनिबद्ध, पुद्गल निबद्ध और क्षेत्र निवद्ध बतलाकर पुद्गलविपाकी, जीवविपाकी और क्षेत्रविपाकी प्रकृतियों का उल्लेख गाथासूत्रों के अनुसार कर दिया गया है। ८. प्रक्रम अनुयोगद्वार पूर्वोक्त निबन्धन के समान यहां इस प्रक्रम को भी नाम-स्थापनादि के भेद से छह प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। इस प्रसंग में यहाँ तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यप्रक्रम के कर्मप्रक्रम और नोकर्मप्रक्रम इन दो भेदों में यहाँ कर्मप्रक्रम को प्रसंगप्राप्त कहा गया है। प्रक्रम से यहाँ 'प्रक्रामतीति प्रक्रमः' इस निरुक्ति के अनुसार कार्मणवर्गणारूप पुद्गलस्कन्ध अभिप्रेत रहा है। कार्य को कारणानुसारिता इस प्रसंग में यहाँ यह शंका की गयी है कि जिस प्रकार कुम्हार एक मिट्टी के पिण्ड से घट-घटी-शराव आदि अनेक उपकरणों को उत्पन्न करता है उसी प्रकार स्त्री, पुरुष, नपुंसक, स्थावर अथवा त्रस कोई भी जीव एक प्रकार के कर्म को बांधकर उसे आठ प्रकार का किया करता है, क्योंकि अकर्म से कम की उत्पत्ति का विरोध है।। ___ इस का परिहार करते हुए धवला में कहा गया है कि यदि कार्मणवर्गणारूप अकर्म से कर्म १. रूपिष्ववधेः।-त० सू० १-२७ षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ५३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy