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________________ आदि शुभ कर्मों के बन्ध का कारण और असातावेदनीय आदि अशुभ कर्मों के बन्ध का रोधक होता है उसका नाम विशुद्धि है और उसकी प्राप्ति को विशुद्धिलब्धि कहा जाता है। छह द्रव्य और नौ पदार्थों के उपदेश का नाम देशना है । इस देशना और उसमें परिणत आचार्य आदि की उपलब्धि के साथ जो उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण एवं विचार करने की शक्ति का समागम होता है उसे देशनालब्धि कहते हैं । समस्त कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग का घात करके उनका जो अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति में और द्विस्थानिक अनुभाग में अवस्थान होता है, उसका नाम प्रायोग्यलब्धि है । द्विस्थानिक अनुभाग का अभिप्राय है कि प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव प्रायोग्यलब्धि के प्रभाव से घातिया कर्मों के अस्थि और शैल रूप अनुभाग का घातकर उसे लता और दारु रूप दो अनुभागों में स्थापित करता है तथा अघातिया कर्मों के अन्तर्गत पाप प्रकृतियों के अनुभाग नीम और कांजीर रूप दो अनुभागस्थानों स्थापित करता है, पुष्पप्रकृतियों का अनुभाग चतुःस्थानिक ही रहता है । ये चार लब्धियाँ भव्य और अभव्य मिथ्यादृष्टि दोनों के समान रूप से सम्भव हैं । किन्तु पाँचवीं करणलब्धि भव्य मिथ्यादृष्टि के ही सम्भव है, वह अभव्य के सम्भव नहीं है ( पु० ६, पृ० २०३-५) । जो भव्य मिथ्यादृष्टिकरणलब्धि को भी प्राप्त कर सकता है, सूत्र के अनुसार (२, ६-८, ४) वह पंचेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्तक और सर्वविशुद्ध होना चाहिए । इन सब विशेषणों की सार्थकता धवला में वर्णित की है । 'मिथ्यादृष्टि' विशेषण की सार्थकता बतलाते हुए कहा है कि सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं करते हैं । यद्यपि उपशमश्रेणि पर आरूढ होते हुए वेदकसम्यग् - दृष्टि उपशमसम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं, किन्तु उनका उपशमसम्यक्त्व 'प्रथम सम्यक्त्व' नाम को प्राप्त नहीं होता । चूँकि वह सम्यवत्व से उत्पन्न हुआ है, अतः उसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व समझना चाहिए। आगे यहाँ धवला में गति, वेद, योग, कषाय, संयम, उपयोग, लेश्या, भव्य और आहार इन मार्गणाओं के आधार से भी उसकी विशेषता का प्रकाशन है । उसके ज्ञानावरणीय आदि मूलप्रकृतियों की उत्तरप्रकृतियों में कितनी और किनका सत्त्व रहता है, इसे भी धवला में दिखाया है। आगे वहाँ (पु० ६, पृ० २०६-१४) अनुभागसत्त्व, बन्ध, उदय और उदीरणा के विषय में भी विचार किया गया है । अनन्तर अन्तिम 'सर्वविशुद्ध' विशेषण को स्पष्ट करते हुए अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन विशुद्धियों के नामनिर्देशपूर्वक उनके स्वरूप आदि के विषय में धवलाकार ने पर्याप्त विचार किया है ( पु० ६, पृ० २१४-२२) । उनके स्वरूप को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है-करण नाम परिणाम का है । जिस प्रकार छेदन-भेदन आदि क्रिया में साधकतम होने से तलवार, वसूला आदि को 'करण' कहा जाता है उसी प्रकार दर्शनमोह के उपशम आदि भाव के करने में साधकतम होने से इन परिणामों को भी नाम से कारण कहा गया है।' इन तीन प्रकार के परिणामों में जो अधःप्रवृत्त१. XXX अधापवत्तकरणमिदि सण्णा । कुदो ? उवरिमपरिणामा अधहेट्ठा हेट्टिमपरिणामेसु पवत्ततित्ति अधापवत्तसण्णा । कधं परिणामाणं करणसण्णा ? ण एस दोसो, असि वासीणं व साहयत्तमभावविववखाए परिणामाणं करणत्तुवलंभादो । -धवला पु० ६, पृ० २१७ ४३४ / षट्खण्डागम-परिशालन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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