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________________ करण हैं उनमें चूंकि ऊपर के परिणाम नीचे के परिणामों में प्रवृत्त होते हैं-पाये जाते हैं, इ. लिए उनका 'अधःप्रवृत्तकरण' नाम सार्थक है । अधःप्रवृत्तकरण के अन्तर्मुहूर्तकाल में उत्तरोत्तर प्रथम-द्वितीयादि समयों में क्रम से समान वृद्धि लिये हुए असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम होते हैं। संदृष्टि के रूप में अन्तर्मुहूर्त के समयों का प्रमाण १६, सव परिणामों का प्रमाण ३०७२ और समान वृद्धिस्वरूप चय का प्रमाण ४ है । उसके प्रथमादि समयों में प्रविष्ट होनेवाले जीवों के परिणाम समान नहीं होते हैं -- किन्हीं के वे जघन्य विशुद्धि को, किन्हीं के उत्कृष्ट विशुद्धि को और किन्हीं के मध्यम विशुद्धि को लिये हुए होते हैं । यह आवश्यक है कि प्रथमादि समयवर्ती जीवों के उत्कृष्ट परिणाम से उपरितन समयवर्ती जीवों का जघन्य परिणाम भी अनन्तगणी विशुद्धि को लिये हुए होता है । संदृष्टि में इन परिणामों को इस प्रकार समझा जा सकता है-.. निर्वगणाकाण्डक समय परिणाम प्र० खण्ड द्वि० खण्ड त० खण्ड ५४ च० खण्ड ५७ on on २२२ २१८ a २१४ KK Cccc PoWWK anar xxxxxxxx KKKKCK Momwwxxm a : w २१० २०६ २०२ १६८ १६४ १६० १८६ १८२ १७८ १७४ १७० is a ४६ ४७ w ४६ ४ ४४ ४५ x x ४२ ४ m ४२ ४४ r ar ३६ ४१ अधःकरण काल के प्रत्येक समय में परिणामों में पुनरुक्तता-अपुनरुक्तता अथवा समानता. असमानता को देखने के लिए उनके क्रमश: चार-चार खण्ड किये गये हैं, उन्हें निर्वर्गणाकाण्डक कहा जाता है। इनमें, संदृष्टि के अनुसार, प्रथम समय सम्बन्धी ३६ परिणाम और अन्तिम समय सम्बन्धी ५७ परिणाम ही ऐसे हैं जिनमें नीचे-ऊपर के किन्हीं परिणामों से समानता नहीं है । शेष परिणामखण्डों में ऊपर से नीचे समानता दृष्टिगोचर होती है । यह अनुकृष्टि की रचना है।' १. धवला पु० ६, पृ० २१४-१६ के अतिरिक्त गो० कर्मकाण्ड की गाथा ८६८-६०७ भी दृष्टव्य हैं। पदसण्डागम पर टीकाएँ । ४३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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