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________________ एक ही परिणाम के दोनों रूप होने का विरोध है (पु० ६, पृ० १८०)। धवलाकार ने आवश्यक तानुसार इसका स्पष्टीकरण भी किया है । जैसे-सूत्र २४ में स्त्री एवं नपुंसक वेद आदि कितनी ही प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्धक समान रूप से पल्योपम के असंख्यातवें भाग से होन सागरोपम के सात भागों में से दो भाग (२/७) निर्दिष्ट किया गया है। __इसकी व्याख्या में यह शंका उठायी गयी है कि नपुंसक वेद और अरति आदि प्रकृतियों का तो जघन्य स्थितिबन्ध सागरोपम के दो-बटे सात भाग सम्भव है, क्योंकि उनका स्थितिबन्ध उत्कृष्ट बीस कोडाकोड़ी सागरोपम प्रमाण देखा जाता है। किन्तु स्त्रीवेद तथा हास्य-रति आदि जिन प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बीस कोडाकोड़ी सागरोपम नहीं है उनका जघन्य स्थितिबन्ध सागरोपम के दो-बटे सात भाग घटित नहीं होता। इसका समाधान करते हुए धवला में कहा है कि यद्यपि उक्त स्त्रीवेद आदि प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण नहीं है, फिर भी मूल प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के अनुसार हीनता को प्राप्त होनेवाली उन प्रकृतियों का पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन सागरोपम के दो-बटे सात भाग मात्र जघन्य स्थितिबन्ध के होने में कोई विरोध नहीं है (पु० ६, पृ० १६०-६२)। सत्र ३५ में नरकगति. देवगति आदि कछ प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध समान रूप में पत्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन हजार सागरोपम के दो-बटे सात भाग मात्र कहा गया है। धवला (पु० ६, १६४-६६) में इसका स्पष्टीकरण एकेन्द्रिय आदि के आश्रय से पृथक्पृथक् किया गया है। ८. सम्यक्त्वोत्पत्ति--प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति का विधान-इस चूलिका के प्रारम्भ में सूत्रकार ने यह सूचना की है कि पहली दो(६ व ७)चूलिकाओं में कर्मों की जिस उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति की प्ररूपणा की गयी है उतने काल की स्थितिवाले कर्मों के रहते हुए जीव सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त करता है (सूत्र १,६-८,१)। __इसके अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यह सूत्र देशामर्शक है। तदनुसार कर्मों के उपर्युक्त जघन्य स्थितिबन्ध और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के साथ उनके जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व, जघन्य व उत्कृष्ट अनुभागसत्त्व और जघन्य व उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व के होने पर जीव सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त करता है। ___इस पर प्रश्न उपस्थित होता है कि इस स्थिति में कर्मों की कैसी अवस्था में जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। इसके समाधान में आगे के सूत्र (१,६-८,३) में कहा गया है कि जीव जब इन्हीं सब कर्मों की अन्त:कोडाकोडी प्रमाण स्थिति को बाँधता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है। इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यह औपचारिक कथन है। वस्तुतः कर्मों की इस स्थिति में भी जीव प्रथम सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त करता है, वह तो अध:प्रवृत्तकरण आदि तीन करणों के अन्तिम समय में प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। इस सूत्र के द्वारा क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चार लब्धियों की प्ररूपणा की गयी है। आगे धवला में इन लब्धियों का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि विशुद्धि के बल से जब पूर्वसंचित कर्मों के अनुभागस्पर्धक प्रतिसमय अनन्तगुणितहीन होकर उदीरणा) को प्राप्त होते हैं तब क्षयोपशमलब्धि होती है। उत्तरोत्तर प्रतिसमयहीन होनेवाली अनन्तगुणी हानि के क्रम से उदी रणा को प्राप्त उन अनुभागस्पर्धकों से उत्पन्न जीव का जो परिणाम सातावेदनीय षट्खण्डागम पर टीकाएँ | ४३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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