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परभविक आयु के बाँधने योग्य तभी होते है जब उनकी भुज्यमान आयु के दो-त्रिभाग (२/३) बीत जाते हैं। इसके पूर्व वे परभविक आयु को नहीं बांधते हैं। इस कारण उत्कृष्ट नारकायु और देवायु का उत्कृष्ट आबाधाकाल पूर्वकोटि का त्रिभाग (१/३) ही सम्भव है। इससे कम तो वह हो सकता है पर अधिक नहीं हो सकता । अभिप्राय यह है कि परभव सम्बन्धी आय का बन्ध संख्यातवर्षायुष्कों के अपनी भुज्यमान आयु के अन्तिम विभाग में होता है। इस विभाग के आठ अपकर्षकालों में (१/३, १४९, १/२७ आदि) से किसी भी अपकर्षकाल में उसका बन्ध हो सकता है । यदि उन अपकर्षकालों में से किसी में भी उसका बन्ध नहीं हुआ तो फिर भुज्यमान आय की स्थिति में अन्तर्महर्त मात्र शेष रह जाने पर वह उस समय असंक्षेपाद्धाकाल (जिसका
र संक्षेप न हो सके) में बंधती है। इस प्रकार आयु का उत्कृष्ट आबाधाकाल पूर्वकोटि का त्रिभाग और जघन्य आबाधाकाल असंक्षेपाद्धा (आवली का संख्यातवाँ भाग) होता है। इस काल में बाँधी गयी परभविक आयु का उदय सम्भव नहीं है। उसकी निषेक स्थिति बाँधी गयी आयु की स्थिति के प्रमाण ही होती है, न कि अन्य ज्ञानावरणादि कर्मों की आबाधा से हीन स्थिति के प्रमाण । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार ज्ञानावरणादि सात कर्मों की निषेक स्थिति में बाधा सम्भव है उस प्रकार आयु की निषेकस्थिति में नहीं है। उसकी बाँधी गयी स्थिति के जितने समय होते हैं उतने ही उस के निषेक होते हैं।
यद्यपि असंख्यात वर्ष की आयुवाले (भोगभूमिज) भी मनुष्य-तिर्यंच हैं, पर उनकी भुज्यमान आयुस्थिति में जब छह मास शेष रह जाते हैं तभी वे परभविक आयु को बाँधने योग्य होते हैं, इससे अधिक आयु के शेष रहने पर उनके परभविक आयु का बन्ध सम्भव नहीं है। इसी प्रकार देव-नारकियों के भी आयु के छह मास शेष रह जाने पर ही परभविक आयु का बन्ध होता है। इससे निश्चित है कि आयुकर्म का आबाधाकाल उत्कर्ष से पूर्वकोटि का त्रिभाग ही हो सकता है, अधिक नहीं।'
७. जघन्यस्थिति---यह जीवस्थान की सातवीं चूलिका है। इसमें कर्मों की जघन्य स्थिति, आबाधा और निषेक आदि की प्ररूपणा की गयी है। __इसके प्रारम्भ में धवला में यह विशेषता प्रकट की गयी है कि उत्कृष्ट विशुद्धि द्वारा जो स्थिति बँधती है वह जघन्य होती है। कारण कि सभी प्रकृतियाँ प्रशस्त नहीं होती हैं। वहाँ यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि संक्लेश की वृद्धि से सब प्रकृतियों की स्थिति में वृद्धि और विशुद्धि की वृद्धि से उनकी स्थिति में हानि हुआ करती है। असाता के बन्धयोग्य परिणाम का नाम संक्लेश और साता के बन्धयोग्य परिणाम का नाम विशुद्धि है।
कुछेक आचार्यों का कहना है कि उत्कृष्ट स्थिति से नीचे की स्थितियों को बांधनेवाले जीव के परिणाम को विशुद्धि और जघन्य स्थिति से ऊपर की द्वितीयादि स्थितियों के बाँधनेवाले जीव के परिणाम को संक्लेश कहा जाता है। उनके इस अभिप्राय को असंगत बतलाते हुए धवला में कहा है कि विशुद्धि और संकले पा का ऐसा लक्षण करने पर जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति के बन्धक परिणामों को छोड़ शेष मध्य की स्थितियों के बन्धक सभी परिणामों के संक्लेश और विशुद्धिरूप होने का प्रसंग प्राप्त होगा। परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, लक्षण भेद के बिना
१. इस सबके लिए देखिए धवला पु०६, पृ० १६६-६६ ; विशेष जानकारी के लिए धवला
पु० १०, पृ० १७७-३६ व पृ० १३८ के टिप्पण द्रष्टव्य हैं।
४३२ / षट्खण्डागम पर टीकाएँ
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