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नारक जिन कर्मप्रकृतियों को बाँधता है उनका निर्देश है। वह जिन प्रकृतियों को नहीं बाँधता है उनका उल्लेख धवला (पु०६, पृ० १४२-४४) में है ।
६. उत्कृष्ट स्थिति — इस छठी चूलिका में ज्ञानावरणीय आदि मूल व उनकी उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के साथ उनके आबाधाकाल और कर्मनिषेकों के क्रम का विवेचन है । जैसे ---- पाँच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, सातावेदनीय और पाँच अन्तराय का उत्कृष्ट बन्ध तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है ।
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इस प्रसंग में धवला में स्थिति के स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा है कि योग के वश कर्मरूप से परिणत हुए पुद्गल -स्कन्ध कषायवश जितने काल तक एक स्वरूप से अवस्थित रहते हैं उतने काल का नाम स्थिति है। उनका आबाधाकाल तीन हजार वर्ष होता है । आबाधा का अर्थ है बाधा का न होना । अभिप्राय यह है कि तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति वाले इन कर्मों के पुद्गल परमाणुओं में एक, दो, तीन आदि समयों को आदि लेकर उत्कर्ष से तीन हजार सागरोपम प्रमाण स्थितिवाले कोई परमाणु नहीं रहते, जो इस बीच बाधा पहुँचा सकें—उदय में आ सकें । कर्मपरमाणु उदीरणा के बिना जितने काल तक उदय को नहीं प्राप्त होते हैं उतने काल का नाम आबाधा है । आबाधा काल का साधारण नियम यह है कि जो कर्म उत्कर्ष से जितने कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति में बाँधा जाता है उसका आबाधाकाल उतने सौ वर्ष होता है ।' तदनुसार उक्त पाँच ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का आबाधाकाल अपनी उत्कृष्ट तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण बन्धस्थिति के अनुसार तीस सौ ( ३०००) वर्ष होता है । इस आबाधाकाल से रहित कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक होता है । आबाधाकाल के पश्चात् प्रत्येक समय में होनेवाले कर्मपरमाणु स्कन्धों के निक्षेप का नाम निषेक है । प्रत्येक समय में निर्जीर्ण होने योग्य कर्मपरमाणुओं का जो समूह होता है वह पृथक्-पृथक् निषेक होता है । इसी प्रकार आबाधाकाल से रहित विवक्षित कर्मस्थिति के जितने समय होते हैं उतना निषेकों का प्रमाण होता है । इनकी रचना के क्रम का विचार धवला (पु० ६, पृ० १४६ - ५८ ) में गणित प्रक्रिया के अनुसार किया गया है ।
ऊपर जो आबाधाकाल के नियम का निर्देश किया है वह एक सामान्य नियम है। विशेष रूप में यदि किसी कर्म का बन्ध अन्तः कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति में होता है तो उसका आबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त मात्र जानना चाहिए। जैसे- आहारकशरीर, आहारक अंगोपांग और तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ा कोड़ी सागरोपम प्रमाण होता है । तदनुसार उनका आबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त मात्र समझना चाहिए (पु०६, पृ० १७४-७७) ।
आयुकर्म के आबाधाकाल का नियम इससे भिन्न है । परभविक आयु का जो बन्ध होता है उसका आबाधाकाल भुज्यमान पूर्व भव की आयुस्थिति के तृतीय भाग मात्र होता है । जैसेनारका और देवायु का जो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तेतीस सागरोपम प्रमाण है उसका आबाधाकाल अधिक से अधिक पूर्वकोटि का तृतीय भाग होता है, इससे अधिक वह सम्भव नहीं । कारण यह है कि नारकायु और देवायु का बन्ध मनुष्य और तिर्यंचों के ही होता है, जिनकी उत्कृष्ट आयुस्थिति पूर्वकोटि मात्र ही होती है । संख्यात वर्ष की आयुवाले ( कर्मभूमिज ) मनुष्य और तिर्यंच
१. उदयं पडि सत्तण्हं आबाहा कोडकोडि उवहीणं ।
वाससयं तत्पडिभागेण य सेसट्ठिदीणं च ॥ -- गो०क० १५६
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षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४३१
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