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गति-जाति आदि के विषय में पर्याप्त ऊहापोह किया गया है (पु० ६, पृ० १५-३०, ५०-५७) ।
२. स्थानसमुत्कीर्तन-यह दूसरी चूलिका है । प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका में कर्मप्रकृतियों के नामों का निर्देश है । वे एक साथ बंधती हैं अथवा क्रम से बंधती हैं, इसे स्पष्ट करने के लिए इम चूलिका का अवतार हुआ है । जिस संख्या में अथवा अवस्थाविशेष में प्रकृतियां अवस्थित रहती हैं उसका नाम स्थान है। वे स्थान हैं-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत । 'संयत' से यहाँ प्रमत्तसंयत से लेकर सयोगिकेवली तक आठ संयत-गुणस्थान अभिप्रेत हैं। अयोगिकेवली को नहीं ग्रहण किया है, क्योंकि वहाँ बन्ध का अभाव हो चुका है। इन स्थानों को स्पष्ट करते हुए प्रथमत: क्रमप्राप्त ज्ञानावरणीय प्रकृतियों के स्थान का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है-- . ज्ञानावरणीय की जो आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय आदि पाँच प्रकृतियाँ हैं उन्हें बाँधनेवाले जीव का पाँच संख्या से उपलक्षित एक ही अवस्थाविशेष में अवस्थान है। अभिप्राय यह है कि उन पाँचों का बन्ध एक साथ होता है, पृथक्-पृथक् सम्भव नहीं है। इससे उनका एक ही म्यान है । यह बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतामयत और संयत के सम्भव है। संयत से यहाँ प्रमत्तसंयत से लेकर सूक्ष्मसाम्परायसंयत तक पाँच संयतगुणस्थानों का अभिप्राय रहा है, क्योंकि आगे उपशान्तकषायादि संयतों के उनका बन्ध नहीं होता (पु०६, पृ० ७६-८२)।
दर्शनावरणीय के तीन बन्धस्थान हैं .--१. समस्त नो प्रकृतियों का, २. निद्रानिद्रा, प्रचलापचला और स्त्यानगृद्धि को छोड़कर शेष छह का; तथा ३. चक्षुदर्शनावरण, अचक्षदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण इन चार का। इनमें प्रथम नौ प्रकृतियों का स्थान मिथ्यादष्टि और सासादनसम्यग्दष्टि इन्हीं दो के सम्भव है, क्योंकि आगे निद्रानिद्रा आदि इन तीन के बन्ध का अभाव हो जाता है। दूसरा छह प्रकृतियों का स्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतमम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत (अपूर्वकरण के सात भागों में से प्रथम भाग तक) के होता है । कारण कि अपूर्वकरण के प्रथम भाग से आगे उन छहों में निद्रा और प्रचला इन प्रकृतियों के बन्ध का अभाव हो जाता है। तीसरा चार प्रकृतियों का बन्धस्थान संयत के-अपूर्वकरण के दूसरे भाग से लेकर सूक्ष्मसाम्प रायसंयत तक होता है' (पु०६, पृ० ८२-८६) ।
आगे क्रम से वेदनीय आदि शेष कर्मप्रकृतियों के भी स्थानों की प्ररूपणा है, जिसका आवश्यकतानुसार धवला में विवेचन किया गया है।
३. प्रथम महादण्डक-इस तीसरी चूलिका में प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच अथवा मनुष्य जिन प्रकृतियों को बांधता है उनका उल्लेख है। जिन कर्मप्रकृतियों को वह नहीं बाँधता है उनका निर्देश धवला में कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त उत्तरोत्तर बढ़नेवाली विशुद्धि क प्रभाव से प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए तिर्यंच या मनुष्य के कम से होनेवाली कर्मबन्धव्युच्छित्ति के क्रम वी भी प्ररूपणा धवला(पु०६, पृ०१३३-४०) में कर दी गयी है।
४. द्वितीय महादण्डक- इस चूलिका में सातवीं पृथिवी के नारक को छोड़कर शेष छह पृथिवियों के नारक और देवों द्वारा बांधी गयी कर्मप्रकुतियों का उल्लेख है। जिन प्रकृतियों को व नही बाँधते हैं उनका भी निर्देश कर दिया गया है (पु०६, पृ० १४०-४२)।
५. तृतीय महादण्डक-इस चलिका में सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ सातवीं पृथिवी का
४३० / षट्खण्डागम-परिशीलन
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