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________________ रहित वर्तनालक्षणवाले लोकप्रमाण अर्थ को तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकाल कहा है। इस प्रसंग में आगे उन्होंने कहा है कि गद्धपिच्छाचार्य द्वारा प्रकाशित तच्चत्यसत्त में भी "वर्तनापरिणाम-क्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य” (त० सू० ५-२२) इस प्रकार द्रव्यकाल की प्ररूपणा की गयी है।' तत्त्वार्थसूत्र-जीवस्थान-सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में एकेन्द्रियादि जीवों की प्ररूपणा के प्रसंग में शंकाकार द्वारा यह पूछा गया है कि पृथिवी आदि स्थावर जीवों के एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है, उनके शेष इन्द्रियां नहीं होती हैं, यह कैसे जाना जाता है । इसके समाधान में धवलाकार ने "जाणदि पस्सवि भुजदि"२ इत्यादि गाथा-सूत्र को उद्धृत करते हुए कहा है, वह उसके प्ररूपक इस आर्ष से जाना जाता है। तत्पश्चात् विकल्प के रूप में उन्होंने यह भी कहा है कि अथवा "वनस्पत्यन्तानामेकम्" इस तत्त्वार्थसूत्र (२-२२) से भी जाना जाता है कि वनस्पतिपर्यन्त पृथिवी आदि स्थावर जीवों के एक स्पर्शन-इन्द्रिय होती है। यहीं पर आगे द्वीन्द्रियादि जीवों की प्ररूपणा के प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गई है कि अमुक जीव के इतनी ही इन्द्रियाँ होती हैं, यह कैसे जाना जाता है। इसके उत्तर में वहाँ "एईविस्स फुसगं" इत्यादि गाथा-सूत्र को उद्धृत करते हुए कहा गया है कि इस आर्ष वचन से वह जाना जाता है । तत्पश्चात् विकल्प के रूप में वहां यह भी कहा गया है कि वह "कमिपिपोलिका-भ्रमर-मनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि” इस तत्त्वार्थसूत्र (२-२३) से जाना जाता है। इस प्रसंग में धवलाकार ने उपर्युक्त गाथा-सूत्र और इस तत्त्वार्थसूत्र के अर्थ को भी स्पष्ट कर दिया है। ११. तत्त्वार्थभाध्य-धवलाकार का अभिप्राय 'तत्त्वार्थभाष्य' से भट्टाकलंकदेव-विरचित 'तत्त्वार्थवार्तिक' का रहा है । जीवस्थान-सत्प्ररूपणा में षटखण्डागम के प्रथम खण्डभूत जीवस्थान का पूर्वश्रुत से सम्बन्ध प्रकट करते हुए धवलाकार ने अंगबाह्य के चौदह और अंगप्रविष्ट के बारह भेदों को स्पष्ट किया है। उस प्रसंग में अन्तकृद्दशा नामक आठवें अंग का और अनुत्तरोपपादिक दशा नामक नौवें अंग का स्वरूप दिखलाकर उसकी पुष्टि में धवलाकार ने 'उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये' इस सूचना के साथ उन दोनों अंगों के तत्त्वार्थवार्तिकगत लक्षणों को उद्धृत किया है, जो कुछ थोड़े से नाम-भेद के साथ उसी रूप में तत्त्वार्थवातिक में उपलब्ध होते हैं। विशेष इतना है कि धवला में उद्धृत अन्तकृद्दशा के लक्षण से आगे तत्त्वार्थवार्तिक में इतना अधिक है ---"अथवा अन्तकृतां दश अन्तकृद्दश, तस्यामहदाचार्यविधिः सिध्यतां च।"५ सम्भवतः यह लक्षण का विकल्प धवलाकार को अभीष्ट नहीं रहा, इसीलिए उन्होंने उसे उद्धृत नहीं किया। १२. तिलोयपण्ण त्तिसुत्त-जीवस्थानद्रव्यप्रमाणानुगम में सूत्रकार द्वारा क्षेत्र की अपेक्षा १. धवला, पु० ४, प० ३१६ २. धवला, पु० ४, पृ० १३६ (यह गाथासूत्र दि० प्रा० पंचसंग्रह (१-६६) में उपलब्ध होता है।) ३. धवला, पु०१ पृ० २३६ ४. धवला, पु० १, पृ० २५८-५६ ५. वही, पृ० १०३ तथा त० वा० १, २०, १२, पृ० ५१ प्रन्योल्लेख / ५८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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