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मियादृष्टि जीवराशि का प्रमाण अनन्तानन्तलोक निर्दिष्ट किया गया है। सूत्र १,२,४
इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने सूत्रोक्त 'लोक' से जगश्रेणि के धन को ग्रहण किया है। इस प्रसंग में उन्होंने सात राजुओं के आयाम को जगश्रेणि और तियंग्लोक के मध्यम विस्तार को राजु कहा है। इस पर यह पूछने पर कि तिर्यग्लोक की समाप्ति कहाँ हई है, धवलाकार ने कहा है उसकी समाप्ति तीन वातवलयों के बाह्य भाग में हुई है। इस पर पुनः यह पूछा गया है कि स्वयम्भूरमण समुद्र की बाह्य वेदिका से भागे कितना क्षेत्र जाकर तियं. ग्लोक की समाप्ति हुई है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि असंख्यात द्वीप-समुद्रों के द्वारा जितने योजन रोके गये हैं उनसे संख्यात गुणे आगे जाकर उसकी समाप्ति हुई है। प्रमाण के रूप में उन्होंने ज्योतिषी देवों के दो सौ छप्पन अंगुलों के वर्ग-प्रमाण भागहार के प्ररूपक सूत्र (१, २, ५५) को और "दुगुणदुगुणो दुवग्गो णिरंतरो तिरियलोगे" इस तिलोयपण्णत्ति सुत्त को प्रस्तुत किया है।' - यह ज्ञातव्य है कि 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ' शोलापुर से प्रकाशित वर्तमान तिलोयपण्णत्ती में उपर्युक्त गाथांश उपलब्ध नहीं होता।' सम्भव है वह उसकी किसी प्राचीन प्रति में लेखक की असावधानी से लिखने से रह गया है। तत्पश्चात् उसके आधार से जो उसकी अन्य प्रतियाँ लिखी गई हैं उनमें उसका उपलब्ध न होना स्वाभाविक है। प्रस्तुत संस्करण में अनेक ऐसे प्रसंग रहे हैं जहाँ पाठ स्खलित हैं। यही नहीं, कहीं-कहीं तो पूरी गाथा ही स्खलित हो गई है। उदाहरण के रूप में ऋषभादि तीर्थंकरों के केवलज्ञान के उत्पन्न होने की प्ररूपणा में सम्भव जिनेन्द्र के केवलज्ञान की प्ररूपक गाथा स्खलित हो गयी है। उसका अनुमित हिन्दी अनुवाद कोष्ठक [ ] के अन्तर्गत कर दिया गया है। इतनी मोटी भूल की सम्भावना ग्रन्थकार से तो नहीं की जा सकती है।
ऐसे ही कुछ कारणों से अनेक विद्वानों का अभिमत है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्ती यतिवृषभाचार्य की रचना नहीं है । पर वैसा प्रतीत नहीं होता। कारण यह कि उपलब्ध 'तिलोयपण्णत्ती' एक ऐसी महत्त्वपूर्ण सुव्यवस्थित प्रामाणिक रचना है जो प्राचीनतम भौगोलिक ग्रन्थों पर आधारित है । स्थान-स्थान पर उसमें कितने ही प्राचीन ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है तथा यथाप्रसंग पाठान्तर व मतभेद को भी स्पष्ट किया गया है।४।।
इस सारी स्थिति को देखते हुए उसके यतिवषभाचार्य द्वारा रचे जाने में सन्देह करना
१. धवला, पु० ३, पृ० ३६; इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा 'धवलागत-विषय-परिचय' में द्रव्य
प्रमाण के अन्तर्गत मिथ्यादृष्टि जीवराशि के प्रमाण के प्रसंग में तथा स्पर्शनानुगम के अन्तर्गत सासादन सम्यग्दृष्टियों के स्पर्शन के प्रसंग में की जा चुकी है, वहां उसे देखा जा
सकता है। २. इससे मिलती-जुलती एक गाथा धवला पु० ४, पृ० १५१ पर इस प्रकार उद्धृत की गयी है
चंबाइच्च-गहेहि घेवं णक्खत्त सारस्वहिं।
दुगुण-गणेहि गोरंतरेहि दुवग्गो तिरियलोगो॥ ३. ति०प०, भाग १, पृ० २२८ ४. ति०प० २, परिशिष्ट प० ६६५ और ६८७-८८ ५८८ / षट्सण्डागम-परिशीलन
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