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________________ णोपशामना' के स्थान में 'देशकरणोपशामना' उपलब्ध होता है। सर्वोपशामना और देशकर. णोपशामना में दोनों ग्रन्थों में क्रमव्यत्यय भी हुआ है। देशकरणोपशामना के प्रसंग में आगे कायप्राभूत में 'एसा कम्मपयडीसु'' (चूणि ३०४) कहकर यह अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि इस देशकरणोपशामना की प्ररूपणा 'कर्मप्रकृतिप्राभृत' में की गयी है। शिवशर्म सूरि-विरचित 'कर्मप्रकृति' में छठा 'उपशामना' नाम का अधिकार है। वहां सर्वप्रथम मंगलस्वरूप यह गाथा कही गयी है करणकया अकरणा वि य दविहा उवसामण त्थ बिइयाए । अकरण-अणुइण्णाए अणुओगधरे पणिवयामि ॥-क०प्र० उप० १ __इसमें ग्रन्थकर्ता ने उपशामना के करणकृता और अकरणा इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनमें अकरणा और अनुदीर्णा नामवाली दूसरी उपशामना विषयक अनुयोग के धारकों को नमस्कार किया है। ___ इस गाथा की व्याख्या में टीकाकार मलयगिरि सूरि ने यह अभिप्राय व्यक्त किया है कि 'अनदीर्णा' अपर नाम वाली अकरणा उपशामना का अनुयोग इस समय नष्ट हो चुका है, इसलिए आचार्य (शिवशर्म सूरि) स्वयं उसके अनुयोग सम्बन्धी ज्ञान से रहित होने के कारण उसके पारंगत विशिष्ट मति-प्रभा से युक्त चतुर्दशपूर्ववेदियों को नमस्कार करते हैं।' उपर्युक्त सब विवेचन से यही प्रतीत होता है कि चूर्णिकार आचार्य यतिवृषभ, शिवशर्म सूरि और धवलाकार वीरसेन स्वामी के समय में अकरणोपशामना के ज्ञाता नहीं रहे थे। यदि चर्णिकार और धवलाकार को उसका विशेष ज्ञान होता तो वे 'उसकी प्ररूपणा कर्मप्रवाद में विस्तार से की गयी है' ऐसी सूचना न करके उसकी प्ररूपणा कुछ अवश्य करते। __ 'जयधवला' में उस प्रसंग में 'कर्मप्रवाद' को आठवाँ पूर्व कहकर यह जो कहा गया है कि उसे वहाँ देखना चाहिए, यह विचारणीय है । क्योंकि उसका तो उस समय लोप हो चुका था। वह जयधवलाकार के समक्ष रहा हो और उन्होंने उसका परिशीलन भी किया हो, ऐसा नहीं दिखता। क्या यह सम्भव है कि उस समय उक्त कर्मप्रवाद पूर्व का एकदेश रहा हो और उसके आधार से यतिवृषभ, वीरसेन और जिनसेन ने वैसा संकेत किया हो ? 'कर्मप्रकृति' में इस प्रसंग में करणोपशामना के सर्वोपशामना और देशोपशामना इन दो १. कम्मपयडीओ णाम विदियपुठवपंचमवत्थुपडिबद्धो चउत्थो पाहुडसण्णिदो अहियारो अस्थि । तत्थेसा देसकरणोवसामणा दट्टव्दा, सवित्थरमेदिस्से तत्थ पबंधेण परूविदत्तादो। कथमेत्थ एगस्स कम्मपयडिपाहुडस्स 'कम्मपयडीसु' त्ति बहुवयणणिद्दे सो त्ति णासंकणिज्ज, एक्कस्स वि तस्स कदि-वेदणादि अवंतराहियारभेदावेक्खाए बहुवयणाणिसाविरोहादो। -जयध० (क.पा.सुत्त प० ७०८, टिप्पण ३) २. अस्माश्चाकरणकृतोपशामनाया नामधेयद्वयम् । तद्यथा-अकरणोपशामना अनुदीर्णोप शामना च । तस्याश्च संप्रत्यनयोगो व्यवच्छिन्नः । तत आचार्यः स्वयं तस्या अनुयोगमजानानस्तद्वेदितृणां विशिष्टमतिप्रभाकलितचतुर्दशपूर्ववेदिनां नमस्कारमाह-'बिइणाए' इत्यादि । -क०प्र० मलय० वृत्ति उप०० १, पृ० २५४ ५४२ / षट्पण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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