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होती है।
इस प्रकार इन भुजाकारादि के स्वरूप स्पष्ट करके आगे यह सूचना कर दी गयी है कि इस अर्थपद के अनुसार आगे के अधिकारों की प्ररूपणा करनी चाहिए। ___ आगे इस भुजाकार के विषय में स्वामित्व आदि का विचार करते हुए पदनिक्षेप व वृद्धि उदीरणा को प्रकट किया गया है (पु० १५, पृ० ५०-५४)।
उत्तर प्रकृतिउदीरणा भी एक-एक प्रकृतिउदीरणा और प्रकृतिस्थानउदीरणा के भेद से दो प्रकार की है । इस दो प्रकार की उत्तरप्रकृतिउदीरणा की भी प्ररूपणा मूलप्रकृतिउदीरणा के समान उन्हीं स्वामित्व आदि अधिकारों में विस्तारपूर्वक की गयी है (पृ० ५४-१००)। ___ इस प्रकार मूलप्रकृतिउदीरणा और उत्तरप्रकृति के समाप्त हो जाने पर प्रकृतिउदीरणा समाप्त हुई है। - इसी पद्धति से आगे यहाँ स्थितिउदीरणा, अनुभागउदीरणा और प्रदेशउदीरणा की भी प्ररूपणा की गयी है (पु० १५, पृ० १००-२७५) ।
इस प्रकार से यहां कर्मोपक्रम का दूसरा भेद उदीरणोपक्रम समाप्त हो जाता है।
(३) उपशामनोपक्रम
नाम-स्थापना आदि के भेद से उपशामना चार प्रकार की है। इस प्रसंग में नोआगमद्रव्यउपशामना के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-कर्मउपशामना और नोकर्मउपशामना। इनमें कर्मउपशामना दो प्रकार की है—करणोपशामना और अकरणोपशामना । अकरणोपशामना का दूसरा नाम अनुदीर्णोपशामना भी है। ___अकरणोपशामना के प्रसंग में धवलाकार ने यह कहा है कि इसकी प्ररूपणा कर्मप्रवाद' में विस्तारपूर्वक की गयी है।
करणोपशामना दो प्रकार की है—देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना। इनमें सर्वकरणोपशामना के अन्य दो नाम हैं-गुणोपशामना और प्रशस्तोपशामना।
सर्वकरणोपशामना के प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि इसकी प्ररूपणा 'कषायप्राभत' में की जावेगी। सम्भवत: 'कषायप्राभृत' से यहाँ धवलाकार का आशय अपने द्वारा विरचित उसकी टीका जयधवला से रहा है।
देशकरणोपशामना के अन्य ये दो नाम हैं-अगुणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना। इसी को यहाँ अधिकृत कहा गया है ।
यह उपशामना से सम्बन्धित सन्दर्भ प्रायः 'कषायप्राभूतचूणि' से शब्दशः समान है। विशेषता इतनी है कि कषायप्राभृतचूणि में 'गुणोपशामना' के स्थान में 'सर्वोपशामना' और 'अगु
१. कम्मपवादो णाम अट्ठमो पुव्वाहियारो जत्थ सव्वेसि कम्माणं मूलुत्तरपयडिभेयभिण्णाणं
दव्व-खेत्त-काल-भावे समस्सियूण विवागपरिणामो अविवागपज्जायो व बहुवित्थरो अणुवण्णिदो । तत्थ एसा अकरणोवसामणा दट्टव्वा, तत्थेदिस्से पबंधेण परूपणोवलंभादो ।
-जयध० (क०पा० सुत्त पृ. ७०७, टि० १) २. देखिये धवला, पु० १५, पृ० २७५-७६ तथा क०प्रा० चूणि २६६-३०६ (क०पा० सुत्त
पृ० ७०७-८)
षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ५४१
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