SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 597
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भेदों का निर्देश है। उसमें बतलाया है कि सर्वोपशामना मोह की ही हुआ करती है। उसं सर्वोपशामना क्रिया के योग्य कौन होता है, इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि उसके योग्य पंचेन्द्रिय, संजी, पर्याप्त, तीन लब्धियों से युक्त-पंचेन्द्रियत्व, संज्ञित्व व पर्याप्तत्व रूप अथवा उपशम, उपदेशश्रवण और तीन करणों के हेतुभूत प्रकृष्ट योगलब्धिरूप तीन लब्धियों से युक्त, करणकाल के पूर्व ही विशुद्धि को प्राप्त होनेवाला, ग्रन्थिकसत्त्वों (अभव्यसिद्धिकों) की विशुद्धि का अतिक्रमण करके अवस्थित, अन्यतर (मति-श्रुत में से किसी एक) साकार उपयोग में तथा विशुद्ध लेश्याओं में से किसी एक लेश्या में वर्तमान होता हुआ जो सात कर्मों की स्थिति को अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण करके, अशुभ कर्मों के चतुःस्थानरूप अनुभाग को द्वि-स्थानरूप और शुभ कर्मों के द्विस्थानरूप अनुभाग को चतुःस्थानरूप करता है, इत्यादि । लगभग यही अभिप्राय प्रायः उन्हीं शब्दों में षट्खण्डागम और उसकी टीका धवला में प्रकट किया गया है। ___ इस प्रकार धवला में उपशामना के भेद-प्रभेदों में उल्लेख करते हुए यहाँ देशकरणोपशामना को प्रसंगप्राप्त कहा गया है। अप्रशस्तोपशामना का स्वरूप स्पष्ट करते हुए यहां कहा गया है कि अप्रशस्त उपशामना से जो प्रदेशपिण्ड उपशान्त है उसका अपकर्षण भी किया जा सकता है और उत्कर्षण भी, तथा अन्य प्रकृति में उसे संक्रान्त भी किया जा सकता है। किन्तु उसे उदयावली में प्रविष्ट नहीं कराया जा सकता (पु० १५, पृ० २७६)। पश्चात् पूर्व पद्धति के अनुसार यहाँ क्रम से मूल और उत्तर प्रकृतियों के आश्रय से प्रस्तुत अप्रशस्त उपशामना की प्ररूपणा स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षा काल, एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय और नाना जीवों की अपेक्षा काल आदि अनेक अधिकारों में की गयी है । जैसे स्वामित्व अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में प्रविष्ट हुए चारित्रमोह के क्षपक व उपशामक जीव के सब कर्म अप्रशस्त उपशामना से अनुपशान्त होते हैं। अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में प्रविष्ट दर्शनमोह के उपशामक के दर्शनमोहनीय अप्रशस्त उपशामना से अनुपशान्त होता है, शेष सब कर्म उस के उपशान्त और अनुपशान्त होते हैं। ____ अनन्तानबन्धी की विसंयोजना में अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में प्रविष्ट होते समय में ही अनन्तानुबन्धिचतुष्क अप्रशस्त उपशामना से अनुपशान्त होता है, शेष सब कर्म उपशान्त और अनूपशान्त होते हैं। किसी भी कर्म का सब प्रदेशाग्र उपशान्त व सब प्रदेशाग्र अनुपशान्त नहीं होता, किन्तु सब उपशान्त-अनुपशान्त होता है। .. विशेषता यह रही है कि वहाँ प्रकृति, स्थिति और अनुभागविषयक उपशामना की प्ररूपणा कर प्रदेशउपशामना के विषय में 'प्रदेशउपशामना की प्ररूपणा जानकर करनी चाहिए' इतना १. क०प्र० उप०क० गाथा २-८ द्रष्टव्य हैं । २. ष०ख० सूत्र १,६-८,४-५ व उनकी धवला टीका (पु० ६, पृ० २०६-३०) तथा सूत्र १, ६-३,१.२; सूत्र १,६-४,१-२; सूत्र १,६-५,१-२ और उनकी टीका (पु०६, पृ० १३३-४४) ३. पदेसउवसामणा जाणियूण परूपदेव्वा । पु० १५, पृ० २८२ षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ५४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy