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________________ (३) "के वि आइरिया 'देवा णियमेण मूलसरीरं पविसिय मरंति' त्ति भणंति ।" -पु० ४, पृ० १६५ (४) "के वि आइरिया कम्मट्ठिदीदो बादरदिदी परियम्मे उप्पण्णा त्ति कज्जे कारणोवयारमवलंबिय बादट्ठिदीए चेय कम्मट्ठिदिसण्णमिच्छंति । तन्न घटते....।" -पु० ४, पृ० ३२ (५) एत्थ वे उवदेसा। तं जहा—तिरिक्खेसु वेमास-मुत्तपुधस्सुवरि सम्मत्तं संजमासंजमं च जीवो पडिवज्जदि । मणुसेसु गब्भादिअट्ठवस्सेसु अंतोमुहुतब्भहिएसु सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च पडिवज्जदि त्ति । एसा दक्खिणपंडिवत्ती। xxxतिरिक्खेसु तिण्णिपक्ख-तिण्णिदिवसअंतोमुत्तस्सुवरि सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च पडिवज्जदि । मणुसेसु अवस्थामुवरि सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च पडिपवज्जदि । "एसा उत्तरपडिवत्ती।" -पु०५, पृ०३२ (६) "के वि आइरिया सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमावलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे बादरपुढविकाइयादीणं कम्मट्ठिदी होत्ति त्ति भणंति ।" --पु० ७, पृ० १४५ (७) "जे पुण जोयणलक्खबाहल्लं रज्जुविक्खंभं झल्लरीसमाणं तिरियलोग ति भणंति तेसि मारणंतिय-उववादखेत्ताणि तिरियलोगादो सादिरेयाणि होति । ण चेदं घडदे,.......।" -पु० ७,३७२ (८) "अण्णेसु सुत्तेसु सव्वाइरियसंमदेसु एत्थेव अप्पाबहुगसमत्ती होदि, पुणो उरिमअप्पाबहुगपयारस्स पारंभो। एत्थ पुण सुत्तेसु अप्पाबहुगसमत्ती ण होदि।" -पु० ७, पृ० ५३६ __(8) "अण्णे के वि आइरिया पंचहि दिवसेहि अट्ठहि मासेहि य ऊणाणि बाहत्तरिवासाणि त्ति बढमाणजिणिदाउअं परुति ।" -पु० ६, पृ० १२१ (१०) "जो एसो अण्णइरियाण वक्खाणकमो परुविदो सो जुत्तीए ण घडदे।" -पु० ६, पृ० ३६ यहाँ मतभेदविषयक ये कुछ थोड़े-से उदाहरण दिये गये हैं। ऐसे मतभेद धवला में बहुत पाये जाते हैं। उनके विषय में विशेष विचार आगे 'वीरसेनाचार्य की व्याख्यान पद्धति' के प्रसंग में किया गया है। आचार्य वीरसेन और उनकी धवला टीका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विस्तृत धवला टीका के रचयिता वीरसेनाचार्य हैं । दुर्भाग्य की बात है कि उनके जीवनवृत्त के विषय में कुछ विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है । टीका के अन्त में स्वयं वीरसेनाचार्य के द्वारा जो प्रशस्ति लिखी गयी है वह बहुत अशुद्ध है। फिर भी उससे उनके विषय में जो थोड़ी-सी जानकारी प्राप्त होती है वह इस प्रकार है-- गुरु आदि का उल्लेख तथा रचनाकाल ___इस प्रशस्ति में उन्होंने सर्वप्रथम अपने विद्यागुरु एलाचार्य का उल्लेख करते हुए यह कहा है कि जिनके पादप्रसाद से मैंने इस सिद्धान्त का ज्ञान प्राप्त किया है वे एलाचार्य मुझ वीरसेन पर प्रसन्न हों।' १. जस्स से [प] साएण मए सिद्धतमिदं हि अहिलहुदं । महु सो एलाइरिओ पसियड वरवीरसेणस्स ॥प्रशस्ति गा० १॥ ३४८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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