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________________ इससे स्पष्ट है कि वीरसेनाचार्य के विद्यागुरु का नाम एलाचार्य रहा है । आगे उन्होंने अपने को आर्य आर्यनन्दी का शिष्य और चन्द्रसेन का नातू (प्रशिष्य) बतलाते अपने कुल का नाम 'पंचस्तूपान्वय' प्रकट किया है ।' हुए इससे ज्ञात होता है कि उनके गुरु ( सम्भवतः दीक्षागुरु) आर्यनन्दी और दादागुरु चन्द्रसेन रहे हैं। उनका कुल पंचस्तूपान्वय रहा है । तत्पश्चात् इस प्रशस्ति में उन्होंने अपने को (वीरसेन को ) इस टीका का लेखक बतलाते हुए सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और प्रमाण (न्याय ) शास्त्र में निपुण घोषित किया है । " आगे की गाथाओं में, जो बहुत कुछ अशुद्ध हैं, ये पद स्पष्ट हैं- अट्ठत्तीसम्हि, विवकमयहि सुतेरसीए, धवलपक्खे, जगतुंगदेवरज्जे, कुंभ, सूर, तुला, गुरु, सुक्क, कत्तियमासे और वोद्दणरायणरिद । इनमें अट्ठत्तीस (अड़तीस ) के साथ 'शती' का उल्लेख नहीं दिखता । कार्तिक मास, धवल (शुक्ल पक्ष और त्रयोदशी इनके बोधक शब्द स्पष्ट हैं । कुंभ, सूर व तुला आदि शब्द ज्योतिष से सम्बन्धित हैं । 3 जैसा कि षट्खण्डागम की पु० १ की प्रस्तावना में विस्तार से विचार किया गया है, 'शती' के लिए 'शक संवत् सात सौ की कल्पना की गयी है । इससे यह स्पष्ट हो तदनुसार जाता है कि वीरसेनाचार्य के द्वारा वह धवला टीका शक संवत् सात सौ अड़तीस में कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी के दिन समाप्त की गयी है । टीका का नाम 'धवला' रहा है व उसे गुरु के प्रसाद से सिद्धान्त का मथन करके वोद्दणराय के शासनकाल में रचकर समाप्त किया गया है, यह भी प्रशस्ति से स्पष्ट है । * यह पूर्व में कहा जा चुका है कि वीरसेनाचार्य के स्वर्गस्थ हो जाने पर उनकी अधूरी जयधवला' टीका की पूर्ति उनके सुयोग्य शिष्य जिनसेनाचार्य ने की है । यह निश्चित है कि वह जयधवला टीका आचार्य जिनसेन द्वारा शक संवत् ७५६ में फाल्गुण शुक्ला दशमी को पूर्ण की गयी है। यह भी पूर्व में कहा जा चुका है कि जयधवला का ग्रन्थप्रमाण साठ हजार श्लोक रहा है । उसमें बीस हजार श्लोक प्रमाण वीरसेनाचार्य के द्वारा और चालीस हजार श्लोक प्रमाण जिनसेनाचार्य के द्वारा लिखी गयी है । इस सबके लिखने में २०-२२ वर्ष का समय लग सकता है । इससे जैसा कि षटखण्डागम पु० १ की प्रस्तावना ( पृ० ४४ ) में निष्कर्ष निकाला गया है, १. अज्जज्जणंदिसिस्सेणुज्जुवकम्मस्स चंदसेणस्स । तह णत्तएण पंचत्थु हण्णयमाणुणा मुणिणा ||४॥ २. सिद्धंत-छंद - जोइस वायरण- पमाणसत्थणिवणेण । भट्टारएण टीका लिहिएसा वीरसेणेण ।। ३. पु० १, प्रस्तावना पृ० ३५-४५ ४. कत्तियमासे एसा टीका हु समाणिया धवला ||८ उत्तरार्ध ॥ वोद्दणरायणरिंदे णरिदचूडामणिम्हि भुंजते । सिद्धतगंथ मत्थिय गुरुप्पसाएण विगत्ता (?) सा ॥६॥ ५. जयधवला प्रशस्ति, श्लोक ६-९ Jain Education International षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ३४६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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