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________________ जयधवला से पूर्व लिखी गयी धवला टीका शक संवत् ७३८ में समाप्त हो सकती है । वीरसेन का व्यक्तित्व बहुश्रुतशालिता - जैसा कि उपर्युक्त धवला की प्रशस्ति से स्पष्ट है, आचार्य वीरसेन सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और न्याय आदि अनेक विषयों के ख्यातिप्राप्त विद्वान् रहे हैं । इसका प्रमाण उनकी यह धवला टीका ही है । इसमें यथाप्रसंग दन सभी विषयों का उपयोग हुआ है, इसे आगे स्पष्ट किया गया है । आचार्य जिनसेन ने भट्टारक वीरसेन की स्तुति करते हुए जयधवला की प्रशस्ति में उन्हें साक्षात् केवली जैसा कहा है । स्वयं को उनका शिष्य घोषित करते हुए जिनसेन ने कहा है कि समस्त विषयों में संचार करनेवाली उनकी भारती (वाणी) भारती - भरत चक्रवर्ती की आज्ञा — के समान षटखण्ड में भरतक्षेत्रगत छह खण्डों के समान छह खण्ड स्वरूप षटखण्डागम के विषय में – निर्बाध गति से चलती रही। उनकी सर्वार्थगामिनी प्रज्ञा को देखकर बुद्धिमान् सर्वज्ञ के सद्भाव में निःशंक हो गये थे । विद्वज्जन उनके प्रकाशमान ज्ञान के प्रसार को देखकर उन्हें श्रुतकेवली प्रज्ञाश्रमण' कहते थे । वे प्राचीन सूत्रपुस्तकों का गहन अध्ययन करके गुरुभाव को प्राप्त हुए थे, अतएव अन्य पुस्तकपाठी उनके समक्ष शिष्य जैसे प्रतीत होते थे । I महापुराण के प्रारम्भ में भी उनका स्मरण करते हुए आचार्य जिनसेन ने कहा है कि 'जिन वीरसेन भट्टारक में लोकज्ञता और कवित्व दोनों अवस्थित रहे हैं तथा जो वृहस्पति के समान वाग्मिता को प्राप्त थे वे पुण्यात्मा मेरे गुरु वीरसेन मुनि हमें पवित्र करें । सिद्धान्तोपनिबन्धों के विधाता उन गुरु के चरण-कमल मेरे मन रूपी सरोवर में सदा स्थित रहें ।' इस प्रकार उनकी प्रशंसा करते हुए अन्त में जिनसेनाचार्य ने उनकी धवला भारती --- षट्खण्डागम पर रची गयी धवला नामक टीका - को और समस्त लोक को धवलित करने वाली निर्मल कीर्ति को नमस्कार किया है । ३ इस प्रकार उनके शिष्य जिनसेनाचार्य द्वारा जो उनकी प्रशंसा की गई है वह कोरी स्तुति नहीं रही है, यथार्थता भी उसमें निश्चित रही है। यहाँ हम उनकी उस धवला टीका के आश्रय से ही उनके इन गुणों पर प्रकाश डालना चाहते हैं । सिद्धान्तपारिगामिता - उन्होंने अपनी इस धवला टीका में अनेक सैद्धान्तिक गढ विषयों का विश्लेषण कर उन्हें विशद व विकसित किया है । यह उनकी सिद्धान्तविषयक पारगामिता का प्रमाण है । इसकी पुष्टि में यहाँ कुछ उदाहरण दिये जाते हैं (१) आ० वीरसेन ने सत्प्ररूपणासूत्रों की व्याख्या को समाप्त करके उनके विवरणस्वरूप १ गुणस्थान, २ जीवसमास, ३ पर्याप्ति, ४ प्राण, ५ संज्ञा, ६-१६ गति इन्द्रियादि चौदह मार्गणाएँ और २० उपयोग इन बीस प्ररूपणाओं का विस्तार से वर्णन किया है। उसके विस्तार को देखकर उसे एक स्वतन्त्र जिल्द (पु० २) में प्रकाशित किया गया है। (२) जीवस्थान- चूलिका के अन्तर्गत सम्यक्त्वोत्पत्ति नाम की 5वीं चूलिका में सूत्र १४ १. प्रज्ञाश्रमण अथवा प्रश्रवण के लिए धवला पु० ६ में पृ० ८१ ८४ द्रष्टव्य हैं । २. जयधवला की प्रशस्ति, श्लोक १६-२४ ३. महापुराण १, ५५-५८ ३५० / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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