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को देशामर्शक बतलाकर धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि वह एक देश का प्ररूपक होकर अपने में गर्भित समस्त अर्थ का सूचक है। इतना स्पष्ट करते हुए आगे वहाँ धवला में संयमासंयम व संयम की प्राप्ति आदि के विधान की विस्तार से प्ररूपणा की गई है।
इसी चलिका में आगे वहाँ सूत्र १५-१६ को भी देशामर्शक प्रकट करके उनसे सूचित अर्थ की प्ररूपणा धवला में बहुत विस्तार से की गई है। अन्त में यह स्पष्ट किया गया है कि इस प्रकार दो सूत्रों से सूचित अर्थ की प्ररूपणा करने पर सम्पूर्ण चारित्र की प्राप्ति का विधान प्ररूपित होता है। इस प्रकार से धवलाकार ने इस आठवीं चूलिका को महती चूलिका कहा है। ___ यहाँ ये दो उदाहरण दिये गये हैं। वैसे तो धवला में बीसों सूत्रों को देशामर्शक बतलाकर उनमें गभित अर्थ की विस्तार से व्याख्या की गई है। इसका विशेष स्पष्टीकरण आगे 'धवलागत विषय का परिचय' और 'ग्रन्थोल्लेख' आदि के प्रसंग में किया जायगा। वस्तुत: आचार्य वीरसेन के सैद्धान्तिक ज्ञान के महत्त्व को शब्दों में प्रकट नहीं किया जा सकता है।
ज्योतिवित्त्व-आ० वीरसेन का ज्योतिषविषयक ज्ञान कितना बढ़ा चढ़ा रहा है, यह उनके द्वारा धवला की प्रशस्ति में निर्दिष्ट सूर्य-चन्द्रादि ग्रहों के योग की सूचना से स्पष्ट है। इसके अतिरिक्त उन्होंने कालानुगम के प्रसंग में जो दिन व रात्रिविषयक १५-१६ मुहूर्तों का उल्लेख किया है तथा नन्दा-भद्रा आदि तिथि विशेषों का भी निर्देश किया है वह भी उनके ज्योतिष शास्त्रविषयक विशिष्ट ज्ञान का बोधक है।' ___आगे 'कृति' अनुयोगद्वार में आगमद्रव्य कृति के प्रसंग में वाचना के इन चार भेदों का निर्देश किया गया है-नन्दा, भद्रा, जया और सौम्या। अनन्तर उनके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जो तत्त्व का व्याख्यान करते हैं अथवा उसे सुनते हैं उन्हें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शुद्धिपूर्वक ही तत्त्व का व्याख्यान अथवा श्रवण करना चाहिए। इन शुद्धियों के स्वरूप को दिखलाते हुए कालशुद्धि के प्रसंग में कब स्वाध्याय करना चाहिए और कव नहीं करना चाहिए, इसका धवला में विस्तार से विचार किया गया है। इसी प्रसंग में आगे 'अत्रोपयोगिश्लोकाः' ऐसी सूचना करते हुए लगभग २५ श्लोकों को कहीं से उदधृत किया गया है। उक्त शुद्धि के बिना अध्ययन-अध्यापन से क्या हानि होती है, इसे भी वहाँ बताया गया है।
१. पु० ६, पृ० २७०-३४२ २. वही, ३४३-४१८ ३. धवला पु० ४, पृ० ३१८-१६; इस प्रसंग में वहाँ धवला में जिन चार श्लोकों को किसी
प्राचीन ग्रन्थ से उद्धृत किया गया है वे उसी रूप में वर्तमान लोक विभाग (६, १६७२००) में उपलब्ध होते हैं । पर वह धवला से पश्चात्कालीन है, यह निश्चित है।
मलयगिरि सूरि ने ज्योतिष करण्डक की टीका (गा० ५२-५३) में 'उक्तं च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ' इस सूचना के साथ तीन गाथाओं को उद्धृत करते हुए ३० मूहों का उल्लेख किया है, जिनमें कुछ नाम समान और कुछ असमान हैं।
इसी प्रकार मलयगिरि सूरि ने उक्त ज्यो०क० की टीका (१०३-४) में 'तथा चोक्तं चन्द्र प्रज्ञप्तौ' ऐसी सूचना करते हुए नन्दा-भद्रादि तिथियों का उल्लेख किया है । साथ
ही वहाँ उग्रवती भोगवती आदि रात्रितिथियों का भी उल्लेख है। ४. धवला पु० ६, २५२-५६
षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ३५१
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