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यह सब वीरसेनाचार्य के ज्योतिर्वित्त्व का परिचायक है।
गणितज्ञता-आ० वीरसेन जिस प्रकार सिद्धान्त के पारगामी रहे हैं उसी प्रकार वे माने हुए गणितज्ञ भी रहे हैं। यह भी उनकी धवला टीका से ही प्रमाणित होता है। उदाहरण के रूप में यहां 'कृति अनुयोगद्वार को लिया जा सकता है। वहां कृति के नाम कृति आदि सात भेदों के अन्तर्गत चौथी गणना कृति के प्रसंग में सूत्र ६६ को देशमर्शक बतलाकर धवला में धन, ऋण और धन-ऋण गणित सबको प्ररूपणीय कहा गया है । तदनुसार आगे उन तीनों के स्वरूप को प्रकट करते हुए संकलना, वर्ग, वर्गावर्ग, घन, घनाघन, कलासवर्ण, राशिक, पंचराशिक, व्युत्कलना, भागहार, क्षयक और कुट्टाकार आदि का उल्लेख करते हुए उन तीनों को यहाँ वर्णनीय कहा गया है।
प्रकारान्तर मे यहाँ 'अथवा' कहकर यह निर्देश किया गया है कि 'कृति' यह उपलक्षण है, अतः यहाँ गणना, संख्यात और कृति का लक्षण भी कहना चाहिए। तदनुसार एक को आदि लेकर उत्कृष्ट अनन्त तक गणना, दो को आदि लेकर उत्कृष्ट अनन्त तक संख्येय और तीन को आदि लेकर उत्कृष्ट अनन्त तक कृति कहा गया है। आगे 'वुत्तं च' कहकर प्रमाण के रूप में यह गाथा उद्धृत की है
एयादीया गणणा दोआदीया वि जाव संखे ति।
तीयादीया णियमा कदि त्ति सण्णा हु बोद्धव्वा ॥ तत्पश्चात् 'यहाँ कृति, नोकृति और अवक्तव्य-कृति इनके उदाहरणों के लिए यह प्ररूपणा की जाती है' ऐसी प्रतिज्ञा करके उसकी प्ररूपणा में ओघानुगम, प्रथमानुगम, चरमानुगम और संचयानुगम इन चार अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है। उनमें ओघानुगम के मूलओघानगम और आदेशओघानुगम इन दो भेदों का निर्देश और उनके स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। पश्चात् प्रसंगप्राप्त चौथे संचयानुगम के विषय में सत्प्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणानुगम आदि आठ अनुयोगद्वारों का निर्देश करते हुए यथाक्रम से उनके आश्रय से संचयानुगम की विस्तारपूर्वक व्याख्या की है।'
इसके पूर्व जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वारों में जो दूसरा द्रव्यप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार है वह पूरा ही गणित से सम्बद्ध है। उसके अन्तर्गत सूत्रों की व्याख्या दुरूह गणित प्रक्रिया के आश्रय से ही की गई है । उदाहरणस्वरूप, वहाँ मिथ्यादृष्टि जीवराशि की प्ररूपणा द्रव्य, काल, क्षेत्र और भाव की अपेक्षा विस्तार से की गई है। भाव की अपेक्षा उसकी प्ररूपणा करते हुए धवलाकार कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि राशि के प्रमाण के विषय में श्रोताओं को निश्चय उत्पन्न कराने के लिए हम मिथ्यादृष्टि राशि के प्रमाण की प्ररूपण। वर्गस्थान में खण्डित भाजित, विरलित, अवहित, प्रमाण, कारण और निरुक्ति इन विकल्पों के आधार से करते हैं।
इस पर वहाँ यह शंका की गई है कि सूत्र के बिना यह प्ररूपणा यहाँ कैसे की जा रही है। समाधान में उन्होंने कहा है कि वह सूत्र से सूचित है।
आगे कृतप्रतिज्ञा के अनुसार वीरसेनाचार्य ने धवला में यथाक्रम से उन खण्डित-भाजित
१. धवला पु० ६, पृ० २७६-३२१ २. धवला पु० ३, पृ० ४०
३५२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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