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कहा गया है जो पर्यायों को प्राप्त होता है, भविष्य में प्राप्त होनेवाला है, अतीत में प्राप्त होता रहा है उसका नाम द्रव्य है। आगे मूल में उसके जीव और अजीव द्रव्य इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनके भेद-प्रभेदों को स्वरूप निर्देशपूर्वक बतलाया गया है। साथ ही उन भेद-प्रभेदों में यहाँ जीवद्रव्य को प्रसंगप्राप्त कहा गया है, क्योंकि इस अनुयोगद्वार में अन्य द्रव्यों के प्रमाण को न दिखलाकर विभिन्न जीवों के ही प्रमाण को निरूपित किया गया है। ____ 'प्रमाण' शब्द के निरुक्तार्थ को प्रकट करते हुए धवला में कहा गया है कि जिसके द्वारा पदार्थ मापे जाते हैं या जाने जाते हैं उसे प्रमाण कहते हैं। जैसाकि पूर्व में आ० वीरसेन की 'व्याकरणपटुता' के प्रसंग में कहा जा चुका है, कि द्रव्य और प्रमाण इन दोनों शब्दों में तत्पुरुष या कर्मधारय आदि कौन-सा समास अभिप्रेत रहा है, इसका ऊहापोह धवला में शंकासमाधानपूर्वक किया गया है।
वस्तु के अनुरूप जो बोध होता है उसे, अथवा केवली व श्रुतकेवली की परम्परा के अनुसार जो वस्तु स्वरूप का अवगम होता है उसे अनुगम कहते हैं । __ अभिप्राय यह हुआ कि जिस अनुयोगद्वार के आश्रय से द्रव्य-क्षेत्रादि के अनुसार विभिन्न जीवों की संख्या का बोध होता है उसे 'द्रव्यप्रमाणानुगम' अनुयोगदार कहा जाता है।' ओघ की अपेक्षा द्रव्यप्रमाण
इस अनुयोगद्वार में प्रथमतः ओघ की अपेक्षा--- मार्गणा निरपेक्ष सामान्य से-क्रमशः मिथ्यादृष्टि तथा सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में और तत्पश्चात् आदेश की अपेक्षागति-इन्द्रियादि मार्गणाओं से विशेषित-गुणस्थानों में द्रव्य-क्षेत्रादि से भिन्न चार प्रकार के प्रमाण की प्ररूपणा की गयी है।
तदनुसार यहाँ सर्वप्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों के द्रव्यप्रमाए. का निर्देश करते हुए उसे अनन्त बतलाया गया है। इस प्रसंग में धवला में अनन्त को अनेक प्रकार का बतलाते हुए एक प्राचीन गाथा के आधार से उस के इन भेदों का निर्देश किया है-(१) नामानन्त, (२) स्थापनानन्त, (३) द्रव्यानन्त, (४) शाश्वतानन्त, (५) गणनानन्त, (६) अप्रदेशिकानन्त, (७) एकानन्त, (८) उभयानन्त, (8) विस्तारानन्त, (१०) सर्वानन्त और (११) भावानन्त । ___ इन सबके स्वरूप का निर्देश करते हुए धवला में उनमें से प्रकृत में गणनानन्त को प्रसंगप्राप्त कहा गया है। वह गणनानन्त तीन प्रकार का है-परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त । इन तीन में यहाँ अनन्तानन्त को ग्रहण किया गया है। अनन्तानन्त भी जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम के भेद से तीन प्रकार का है। इनमें किस अनन्तानन्त की यहाँ अपेक्षा है, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि "जहां-जहाँ अनन्तानन्त का मार्गण किया जाता है वहाँ-वहाँ अजधन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) अनन्तानन्त का ग्रहण होता है" इस परिकर्मवचन के अनुसार यहाँ अजघन्य-अनुत्कृष्ट अनन्तानन्त का ग्रहण अभिप्रेत है। इस अजधन्य-अनुत्कृष्ट अनन्तानन्त के अनन्त भेद हैं। उनमें से यहाँ उसका कौन-सा भेद अभीष्ट है, इसे स्पष्ट करते हुए आगे धवला में कहा गया है कि जघन्य अनन्तानन्त से अनन्त वर्गस्थान ऊपर जाकर और उत्कृष्ट अनन्तान्त से अनन्त वर्गस्थान नीचे उतरकर मध्य में जिनदेव के द्वारा जो राशि देखी गयी है, उसे ग्रहण करना चाहिए। अथवा, तीन बार वगित-संवर्गित राशि से अनन्तगुणी और
१. धवला पु० ३, पृ० २.८
षदखण्डागम पर टीकाएँ। ३८९
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