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'गौतम' के रूप में प्रसिद्ध हुए हैं। जन्मतः वे ब्राह्मण रहे हैं । धवलाकार ने प्रन्थकर्ता की प्ररूपणा के प्रसंग में उनका परिचय इस प्रकार दिया है
महावीर जिनेन्द्र के द्वारा की गयी तीर्थोत्पत्ति के प्रसंग में धवला में निर्दिष्ट तीस वर्ष प्रमाण केवलीकाल में ६६ दिनों के कम करने पर धवला में यह शंका की गयी है कि केवलिकाल में से इन ६६ दिनों को क्यों कम किया जा रहा है । इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि केवलज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर भी इतने दिन तीर्थ की उत्पत्ति नहीं हुई, इसलिए उसमें से इतने दिन कम किये गये हैं । इस प्रसंग में आगे का कुछ शंका-समाधान इस प्रकार है
शंका-केवलज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर भी दिव्यध्वनि क्यों नहीं प्रवृत्त हुई ? समाधान-गणधर के न होने से दिव्यध्वनि नहीं प्रवृत्त हुई। शंका-सौधर्म इन्द्र ने उसी समय गणधर को लाकर क्यों नहीं उपस्थित कर दिया ?
समाधान-काललब्धि के बिना असहाय सौधर्म इन्द्र के गणधर को लाकर उपस्थित कर देने की शक्ति सम्भव नहीं थी।
शंका-तीर्थकर के पादमूल में महाव्रत स्वीकार करनेवाले को छोड़कर अन्य को लक्ष्य करके दिव्यध्वनि क्यों नहीं प्रवृत्त होती है। __ समाधान-ऐसा स्वभाव है व स्वभाव दूसरों के प्रश्न के योग्य नहीं होता, अन्यथा कुछ व्यवस्था ही नहीं बन सकती है।
सौधर्म इन्द्र गौतम गणधर को किस प्रकार लाया, इसे स्पष्ट करते हुए आगे धवला में कहा गया है कि काललब्धि की सहायता पाकर सौधर्म इन्द्र वहाँ पहुँचा, जहाँ पांच-पांच सौ शिष्यों सहित एवं तीन भाइयों से वेष्टित इन्द्रभूति ब्राह्मण अवस्थित था। वहां जाकर उसने
पंचेव अत्थिकाया छज्जीवणिकाया महग्वया पंच।
अट्ठय पवयणमादा सहेउओ बंध-मोक्सो य ॥ यह गाथा प्रस्तुत करते हुए उसका अभिप्राय पूछा। इस पर इन्द्रभूति सन्देह में पड़कर तीनों भाइयों के सहित इन्द्र के साथ होकर वर्धमान जिनेन्द्र के पास जाने को उद्यत हुआ। वहाँ जाते हुए समवसरण में प्रविष्ट होने पर मानस्तम्भ को देखकर उसका अपनी विद्वत्ताविषयक सारा मान नष्ट हो गया । तब उसकी विशुद्धि उत्तरोत्तर बढ़ती गयी । वहाँ वर्धमान जिनेन्द्र का दर्शन करने पर उसके असंख्यात भवों में उपार्जित गुरुतर कर्म नष्ट हो गये । उसने तीन प्रदक्षिणा देते हुए जिनेन्द्र की वन्दना की और अन्तःकरण से जिन का ध्यान करते हुए उनसे संयम को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार बढ़ती हुई विशुद्धि के बल से उसके अन्तर्महर्त में ही गणधर के समस्त लक्षण प्रकट हो गये । तब गौतमगोत्रीय उस इन्द्रभूति ब्राह्मण ने जिनदेव के मुख से निकले हुए बीजपदों को अवधारित करके दृष्टिवादपर्यन्त आचारादि बारह अंगों और अंगबाह्यस्वरूप निशीथिका-पर्यन्त सामायिकादि चौदह प्रकीर्णकों की रचना कर दी। यह ग्रन्थरचना का कार्य उसके द्वारा युग के आदि स्वरूप श्रावणकृष्णा प्रतिपदा के दिन पूर्वाह्न में सम्पन्न हुआ । इस प्रकार इन्द्रभूति भट्टारक वर्धमान-जिन के तीर्थ में ग्रन्थकर्ता हुए।'
१. धवला, पु० ६, पृ० १२६-३० व इसके पूर्व पु० १, पृ० ६४-६५; गणधर के लक्षण पृ० ६,
पृ० १२७-२८ में देखे जा सकते हैं।
ग्रन्थकारोल्लेख / ६७५
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