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________________ ८. धरसेन इनके विषय में जो कुछ थोड़ा परिचय प्राप्त है उसका उल्लेख पीछे 'धरसेनाचार्य व योनिप्राभृत' शीर्षक में किया जा चुका है । ९. नागहस्ती क्षमाश्रमण इनका परिचय पीछे 'आर्यमंक्षु और नागहस्ती' शीर्षक में आर्यमंक्षु के साथ कराया जा चुका है । १०. निक्षेपाचार्य यह पूर्व में कहा जा चुका है कि जो आचार्य - आम्नाय के अनुसार विवक्षित गाथासूत्रों आदि का शुद्ध उच्चारणपूर्वक व्याख्यान करते-कराते थे, उन्हें उच्चारणाचार्य कहा जाता था । इसी प्रकार जो आचार्य नाम स्थापनादि निक्षेपों की विधि में कुशल होते थे और तदनुसार ही प्रसंग के अनुरूप वस्तुतत्त्व का व्याख्यान किया करते थे, वे 'निक्षेपाचार्य' के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं । धवला में निक्षेपाचार्य का उल्लेख इन दो प्रसंगों पर किया पर किया गया है (१) वेदनाद्रव्यविधान - चूलिका में अन्तरप्ररूपणा के प्रसंग में एक-एक स्पर्धक के अन्तर के प्ररूपक सूत्र (१८४) की व्याख्या करते हुए धवला में यह कहा गया है " तत्थ दव्वट्ठियणयावलंबणाए एगवग्गस्स सरिसत्तणेण सगंतोक्खित्तसरिसधणियस्स वग्गसणं काद्धण एगोलीए फसण्णं काऊण णिक्खवाइरिय परूविदगाहाणमत्थं भणिस्सामो ।' यह कहते हुए आगे वहाँ संदृष्टिपूर्वक पाँच (२०-२४) गाथाओं को उद्धत कर उनके अभिप्राय को स्पष्ट किया गया है ।' (२) कृति - वेदनादि २४ अनुयोगद्वारों में वें 'प्रक्रम' अनुयोगद्वार की प्ररूपणा के प्रसंग में अनुभागप्रक्रम का विचार करते हुए धवला में 'एत्थ अप्पाबहुअं उच्चदे' ऐसी सूचना करके उत्कृष्ट और जघन्य वर्गणाओं में प्रक्रान्तद्रव्यविषयक अल्पबहुत्व को प्रकट किया गया है । तत्पश्चात् स्थिति में प्रक्रान्त अनुभाग के अल्पबहुत्व को स्पष्ट करते हुए अन्त में 'एसो णिवखेवाइरियउarसो' यह सूचना की गयी है । * ११. पुष्पदन्त यह पूर्व में कहा जा चुका है कि आचार्य धरसेन को जो आचार्यपरम्परा से अंगपूर्वश्रुत का एकदेश प्राप्त हुआ था, वह उनके बाद नष्ट न हो जाय, इस प्रवचन- वत्सलता के वश उन्होंने महिमानगरी में सम्मिलित हुए दक्षिणापथ के आचार्यों के पास एक लेख भेजा था । उससे धरसेनाचार्य के अभिप्राय को जानकर उन आचार्यों ने ग्रहण-धारण में समर्थ जिन दो सुयोग्य साधुओं को धरसेन के पास भेजा था उनमें एक पुष्पदन्त थे । इन्होंने धरसेनाचार्य के पादमूल में भूतबलि के साथ समस्त महाकर्मप्रकृतिप्राभृत को पढ़ा था । यह अध्ययन-अध्यापन कार्य आषाढ़ शुक्ला एकादशी के दिन समाप्त हुआ था । विनयपूर्वक इस अध्ययनकार्य के समाप्त करने पर सन्तुष्ट हुए भूतों ने पुष्पदन्त के अस्तव्यस्त दाँतों की पंक्ति को समान कर दिया था । इससे धरसेन भट्टारक ने उनका 'पुष्पदन्त' यह १. धवला, पु० १०, ४५६-६२ २. धवला, पु० १५, पृ० ४० ६७६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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