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सर्वार्थसिद्धि में वैसी कुछ अन्य चर्चा नहीं की गई है। वहीं केवल सत्प्ररूपणा उन मार्गणाओं में यथासम्भव गुणस्थानों के अस्तित्व को प्रकट किया गया है । जैसे
इन्द्रियमार्गणा
" एइंदिया वीइंदिया तीइंदिया चउरदिया असण्णिपंचिदिया एक्कम्मि चेव मिच्छा इट्ठि| पंचिदिया असष्णिपंचिदियप्पहुडि जाव अजोगिकेवलिति । तेण परमणिदिया इदि ।” - ष० ख० सूत्र १,१,३६-३८ "इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियादिषु चतुरिन्द्रियपर्यन्तेषु एकमेव मिथ्य्यादृष्टिस्थानम् । पंचेद्रियेषु चतुर्दशापि सन्ति । " - स० स०, पृ० १४
इस प्रकार यहाँ गुणस्थानों का उल्लेख दोनों ग्रन्थों में समान रूप से किया गया है । विशेष इतना है कि ष० ख० में जहाँ असंज्ञी पंचेन्द्रियों का निर्देश एकेन्द्रियों आदि के साथ तथा पंचेन्द्रियों के साथ भी गुणस्थानों का उल्लेख करते समय किया गया है वहाँ स० सि० में संज्ञी असंज्ञी का भेद न करके एकेन्द्रियादि चार के एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान और पंचेन्द्रियों के चौदहों गुणस्थानों का सद्भाव प्रकट कर दिया गया है । यहीं स्थिति अन्य मार्गणाओं के प्रसंग में भी दोनों ग्रन्थों की रही है।
'अनुसार
२. द्रव्यप्रमाणानुगम ( संख्या प्ररूपणा )
द्रव्यप्रमाणानुगम यह सत्प्ररूपणा आदि उपर्युक्त आठ अनुयोगद्वारों में दूसरा है । स० सि० में इसका उल्लेख 'संख्याप्ररूपणा' के नाम से हुआ है । अर्थ की अपेक्षा दोनों में कुछ भी भेद नहीं है । इसके प्रसंग में भी दोनों ग्रन्थों की समानता द्रष्टव्य है—
"दव्वपमाणाणुगमेण दुविहो णिद्द सो ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छाइट्ठी केवडिया ? प्रणता । प्रणंताणंताहि ओसप्पिणिउस्सप्पिणीहि ण प्रवहिरंति कालेण । खेत्तेण अणंताणंता लोगा । तिन्हं पि अधिगमो भावपमाण । सासणसम्माइट्टिप्पहुडि जाव संजदासंजदा ति दव्वपमाणेण केवडिया ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एदेहि पलिदोवममवहिरिज्जदि अंतोमुहुत्तेण । पमत्तसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया ? कोडिपुधत्तं । अप्पमत्तसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया ? संखेज्जा । चदुण्हमुवसामगा दव्वपमाणेण केवडिया ? पवेसणेण एक्को वा दो वा तिणि वा उक्कस्सेण चउवण्णं । श्रद्धं पडुच्च संखज्जा ।" — सूत्र १,१.१ १०
"संख्या प्ररूपणोच्यते- - सा द्विविधा | सामान्येन तावत् जीवा मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ता । सासादन-सम्यग्दृष्टयः सम्यग्मिथ्यादृष्टयोऽसंयतसम्यग्दृष्टयः संयतासंयताश्च पल्योपमा संख्येयभागप्रमिताः । प्रमत्तसंयताः कोटीपृथक्त्वसंख्याः । पृथक्त्वमित्यागमसंज्ञा तिसृणां' कोटीनामुपरि नवानामधः । अप्रमत्तसंयताः संख्येयाः । चत्वार उपशमका प्रवेशेन एको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षेण चतुःपञ्चाशत्, स्वकालेन समुदिताः संख्ये याः ।” - स०सि० पृ० १६-१७
इस प्रकार से यह संख्याप्ररूपणा का प्रसंग दोनों ग्रन्थों में प्रायः शब्दश: समान है । विशेषता इतनी है कि ष० ख० में मिथ्यादृष्टियों के प्रमाण को अनन्त बतलाते हुए उसकी प्ररूपणा काल, क्षेत्र और भाव की अपेक्षा भी की गई है (सूत्र २ - ५ ) । पर स०सि० में मिथ्यादृष्टियों की उस संख्या को सामान्य से अनन्तानन्त कहकर सम्भवतः दुर्बोध होने के कारण काल, क्षेत्र और भावकी अपेक्षा उसका उल्लेख नहीं किया गया है। बीच में यहाँ 'पृथक्त्व' इस
२०० / षट्खण्डागम-परिशीलन
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