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आगमोक्त संज्ञा को भी स्पष्ट कर दिया गया है, जिसका स्पष्टीकरण ष० ख० मूल में न करने पर भी धवला टीका में कर दिया गया है । '
आगे दोनों ही ग्रन्थों में चार क्षपकों, प्रयोगि- केवलियों और सयोगि- केवलियों की संख्या का भी उल्लेख समान रूप में किया गया है। *
संख्याप्ररूपणा का यह क्रम आगे गति- इन्द्रियादि मार्गणाओं में भी प्रायः दोनों ग्रन्थों में समान उपलब्ध होता है ।
३. क्षेत्रानुगम
ष० ख० और स० सि० दोनों ही ग्रन्थों में पूर्व पद्धति के अनुसार चौदह गुणस्थानों में क्षेत्र का निर्देश इस प्रकार किया गया है
"खेत्ताणुगमेण दुविहो गिद्द े सो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे । सासणसम्माइट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलित्ति केवड खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभाए । सोगिकेवली केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सब्बलोमे वा।" - ष० ख०, सूत्र १,३,१-४
"क्षेत्र मुच्यते । तद् द्विविधम् - सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावत् मिध्यादृष्टीन सर्वलोकः । सासादनसम्यग्दृष्टयादीनामयोग केवल्यन्तानां लोकस्यासंख्येयभागः । सयोगकेवलिनां लोकस्यासंख्येयभागः, समुद्घातेऽसंख्येया वा भागाः सर्वलोको वा ।" स०सि०, पृ० २०-२१
यह क्षेत्रप्ररूपणा का प्रसंग भी दोनों ग्रन्थों में समान है। विशेष इतना है कि वहाँ सयोग - केवलियों का क्षेत्र जो प्रसंख्यात बहुभाग और सर्वलोक प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है वह समुद्घात की अपेक्षा सम्भव है, इसे सर्वार्थसिद्धि में स्पष्ट कर दिया गया है । उसका स्पष्टीकरण मूल ष० ख० में तो नहीं किया गया, पर धवला टीका में उसे स्पष्ट कर दिया गया है । ३
क्षेत्रविषयक यह समानता दोनों ग्रन्थों में आगे मार्गणाओं के प्रसंग में भी देखी जा सकती है।
४. स्पर्शनानुगम
स्पर्शनविषयक समानता भी दोनों ग्रन्थों में द्रष्टव्य है
“पोसणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं ? सव्वलोगो । सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अट्ठ बारह चोट्स भागा वा देसूणा । सम्मामिच्छाइट्ठि असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं ?
१. पुधत्तमिदि तिन्हं कोडीणमुवरि णवण्हं कोडीणं हेट्ठदो जा संख्या सा घेत्तव्वा !
२. ष० ख० सूत्र १, २, ११-१४ और स० सि०, पृ० १७ ३. पदरगदो केवली केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जेसु भागेसु, लोगस्स असंखेज्जदिभागं वादवलयरुद्धखेत्तं मोत्तूण सेसबहुभागेसु अच्छदि त्ति जं वृत्तं होदि । - धवला पु० ४, पृ० ५०; लोगपूरणगदो केवली केवडि खेत्ते ? सव्बलोगे । पु० ४, पृ० ५६
षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २०१
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- धवला पु० ३, पृ० ८६
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