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धवला
जीवकाण्ड पंचसंग्रह
क्रम संख्या
गाथा
गाथा
गाांश सम्मत्तुपत्तीय वि
१०६.
२८३
२६२ ३५०
२८४
११८.
१०६. सम्माइट्ठी जीवो
१७३
२४२ ११०. संगहियसयलसंजम
३७२ ४६६ १.१२६ संपुण्णं तु समग्गं
३६० ४५६ १-१२६ ११२. साहारणमाहारो
२७०
१६१ १-८२ २२६
४८७ ११३. सिल-पुढविभेद-धूली
३५० ११४, सुत्तादो तं सम्म
२८ ११५. सेलट्ठि-कट्ठ-वेत्तं ११६. सेलेसिं संपत्तो
१६६ ११७.
सोलसयं चउवीसं होंति अणियट्टिणोते
___ ५७ १-२१ षट्खण्डागम के प्रथम खण्डस्वरूप जीवस्थान में प्रतिपाद्य विषय का विवेचन यथाक्रम से सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों में ओघ और आदेश की अपेक्षा अतिशय व्यवस्थित रूप में किया गया है। जिस विषय का विवेचन मूल ग्रन्थ में नहीं किया गया है उसका विवेचन उसकी महत्त्वपूर्ण टीका में यथाप्रसंग विस्तार से कर दिया गया है। धवलाकार आचार्य वीरसेन ने पचासों सूत्रों को 'देशामर्शक' घोषित करके उनसे सूचित अर्थ की प्ररूपणा परम्परागत व्याख्यान के आधार से धवला में विस्तार से की है। इसका विशेष स्पष्टीकरण आगे 'धवला टीका' के प्रसंग में किया जायेगा।
जीवकाण्ड में गुणस्थानों और मार्गणास्थानों को महत्त्व देखकर भी आचार्य नेमिचन्द्र ने प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा गुणस्थान, जीवसमास व पर्याप्ति आदि बीस प्ररूपणाओं के क्रम से की है। इससे दोनों ग्रन्थों में यद्यपि विषयविवेचन का क्रम समान नहीं रहा है, फिर भी जीवस्थान में प्ररूपित प्रायः सभी विषयों की प्ररूपणा आगे-पीछे यथाप्रसंग जीवकाण्ड में की गई है। इस प्रकार जीवस्थान में चचित सभी विषयों के समाविष्ट होने से को यदि उसे षट्खण्डागम के जीवस्थान खण्ड का संक्षिप्त रूप कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कर्मकाण्ड
कर्मकाण्ड यह गोम्मटसार का उत्तर भाग है। इसकी समस्त गाथासंख्या ६७२ है। वह इन नौ अधिकारों में विभक्त है-प्रकृतिसमुत्कीर्तन, बन्धोदय-सत्त्व, सत्त्वस्थानभंग, त्रिभलिका, स्थानसमुत्कीर्तन, प्रत्यय, भावचूलिका, त्रिकरणचलिका और कर्मस्थिति रचना । इन अधिकारों के द्वारा उसमें कर्म की बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदीरणा, सत्त्व, उदय और अपशम आदि विविध अवस्थाओं की अतिशय व्यवस्थित प्ररूपणा की गई है । उसका भी
३२४ / बटाण्डागम-परिशीलन
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